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"ब्रजभाषा भाषा रूचिर कहै सुमति सब कोय।
मिलै संस्कृत पारस्यौ पै अति प्रगट जु होय॥
ब्रज मागधी मिलै अमर नाग यवन भाखनि।
सहज पारसी हू मिलै षट विधि कहत बखानि॥

(काव्यनिर्णय, भाषा लक्षण, सन् १७४६ ई॰)

'यवन भाखानि' और 'सहज पारसी' आदि पदों के विषय में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं रही। महात्मा गांधी से लेकर श्री जिन्ना तक सभी लोग आसानी से उन्हें समझ सकते हैं और सहूलियत के साथ देख सकते हैं कि वस्तुतः हिंदी के आचार्य किस प्रकार मुसलिम बातों को अपनाते हैं और वे किस जीवट के व्यक्ति हैं। हाँ, बिहार के प्रसंग में इस 'मागधी' की कुछ चर्चा हो जानी चाहिए। भाषा के क्षेत्र में बिहारी सज्जन किस दृष्टि से देखे जाते हैं, इसके कहने की कदाचित् कोई आवश्यकता नहीं। उर्दू के लोग उनकी जबान से कितनी दूर रहना चाहते हैं, इसका कुछ पता शेख इमाम बख्श 'नासिख़' की उस करनी से लगाया जा सकता है जिसका परिचय उन्होंने अजीमाबाद (पटना) से भागते समय दिया था। बिहारियों के बीच रहने से उनकी जबान खराब हो रही थी। पर हिंदी का आचार्य भिखारीदास भाषा को कोई छुईमुई जैसी चीज नहीं समझता। उसकी दृष्टि में उसमें मागधी का भी उचित पुट दिया जा सकता है। भला कौन कह सकता है कि कितने दिनों से हमारे देश के आचार्य भाषा के 'षट्‍रस' में मग्न हैं और अन्य