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रहा है। अच्छा होगा, इसके लिये भी औरंगजेत्ब का समय चुना जाय और साफ साफ दिखा दिया जाय कि दरहकीकत 'हमारी ज़बान' किसके मुँह की जबान है।

आशा है आज भी काँगरेसी सरकार को 'भूषण' याद होंगे और उनकी 'शिवा बावनी' तो हमारे कुछ दोस्तों को भूल ही नहीं सकती। पर हमारा उनसे नम्र निवेदन यह है कि कृपया एक बार उसी समय की शेख मुल्ला 'नसरती' की रचनाओं पर भी गौर करें और फिर देखें कि मामला क्या है। प्रसंग भाषा का है। अतएव उसी के बारे में 'नसरती' की राय सुन लीजिए और कुछ देख भी लीजिए कि आखिर क्यों, कौन सा दावा पेश किया जा रहा है। उसका कहना और सदर्प कहना है कि—

"दखिन के शायराँ की मैं रविश पर शेर बोल्या नहीं।
हुआ क्या? सब गुज़र गए तो देखो हाज़िर दो दफ़्तर हैं।"

(उर्दू, अक्टूबर सन् १९३४ ई॰ पृ॰ ९३०)

अच्छा! तो आप की 'रविश' क्या है? जरा सुन लीजिए—

"दखिन का किया शेर जो फ़ारसी।"(वही, पृ॰ ९३३)

लेकिन

"फ़साहत में गर फ़ारसी खुश कलाम, धरे फ़ख़्र हिन्दी बचन पर मुदाम।
वगर शेर हिन्दी के बाज़े हुनर, न सकते हैं ल्या फ़ारसी में सँवर।
मैं इस दो हुनर के खुलासे कों पा, किया शेर ताज़: दोनों फ़न मिला।"

(वही, पृ॰ ९३३)