पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/४७

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चेष्टा की। नतीजा आप के सामने है। दक्खिनी हिंदी न रह फारसी हो चली।

'फ़ारसी रविश' और फ़ारसी मज़ामीन' के आ जाने से फारसीवालों को 'दक्खिनी' में भी कुछ दिखाई देने लगा, और शाह हातिम जैसे उस्ताद ने भी रेखता में कुछ कहना शुरू कर दिया। पहले तो उनके सामने 'वली' का आदर्श था पर बाद में उन्होंने अपना आदर्श बदल दिया और घोर शब्दों में घोषणा कर दी कि—

"व रोज़मर्रः देहली कि मिरज़ायाने हिन्द फ़सीह गोयाने रंद दर मुहावरः दारंद मंजूर दानिस्त:।"

खैर, अभी तक गनीमत थी। मिरजा और फसीह लोगों की जबान समझी जाती थी। उसका घर तो कहीं था। पर इसके आगे शाह हातिम साहब कुछ और भी पते की बात फरमा जाते हैं और साफ इशारा कर देते हैं कि अब 'उर्दू-ए-मुअल्ला' में क्या होनेवाला है। जरा सुनिए तो सही, कैसी नफीस बात है—

"सिवाय आँ, ज़बान हर दयार, ता बहिन्दवी, कि आँरा झाका गोयन्द मौक़ूफ़ नमूदः फ़कत रोज़मर्रः, कि आमफ़हन व ख़ासपसंद बूदः, एख़्तियार करद:।" (दीवानज़ादः का दीबाचः सन् १७५५ ई॰)

सोचने, समझने तथा विचार करने की बात यह है कि इससे कुछ ही दिन पहले अर्थात् सन् १७४ ई॰ में आचार्य भिखारीदास 'यवन भाषा' तथा 'पारसी' को सहज रूप में अपनाते रहने की