पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/४८

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अनुमति देते हैं और इधर उर्दू के मुस्तनद मुसन्निफ यह राय कायम करते हैं कि

"ज़बान हर दयार, ता बहिन्दवी, कि आँरा भाका गोयन्द मौक़ूफ़ ननूदः।"

बेचारी 'हिन्दवी' और 'भाका' ने क्या अपराध किया था कुछ इसका भी पता है? क्या रोजमर्रः या बोलचाल का होना भी कोई अपराध है? यदि नहीं तो शाह हातिम के इस प्रकोप का कारण क्या? यदि हाँ, तो हिन्दुस्तानी के लिये बोलचाल की दुहाई क्यों? सुनिए सैयद इंशा का फरमान क्या है और हिंदू किस हैसियत के जीव हैं। उनका उल्लास है―

"बर साहेब तमीज़ान पोशीदा नेस्तकि हिन्दुआन सलीक़ा दर रफ़्तार व गुफ़्तार व खोराक़ व पोशाक अज़ मुसलमानान याद गिरफ़्ता अन्द। दर हेच मक़ाम क़ौल व फ़ेल ईहाँ मनात एतबार नमी तवानद शुद। बिलजुमला जसयेकि दर शाहजहानाबाद मौवाशन्द दो फ़िरक़ा अन्द। बाज़े बसुहबत मुसलमानान रसीदा व बाज़े महरूम माँदा। फ़िरक़ा अव्वल अज़ गुफ़्तन दया व कृपा बमाने मेहरबानी व रिच्छा, बाराय मकसूर व तशदीद जीम फ़ारसी या हाय मुत्तहृद गश्ता, बमाने निगहबानी।" (दरियाये लताफ़त, अंजुमन तरक्क़ी उर्दू, १९१६ ई॰, पृ॰ ९)

हिंदुओं की ढिठाई और हठधर्मी तो देखिए कि चलना फिरना, बोलना चालना, खाना पीना, ओढ़ना बिछाना सब कुछ तो सीखा मुसलमानों से, पर दीन और मजहब की बातें न जाने कहाँ से सीख लीं और मुसलमानों के संसर्ग में अच्छी तरह आ जाने पर भी कुछ ऐसे के ऐसे ही बने रह गए 'कि किसी भी बात