पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/४९

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में इनका क़ौलफ़ेल एतबार के क़ाबिल नहीं' हुआ। होता भी कैसे? 'हिंदवी' और 'भाका' को मार भगाने पर भी तो हठी हिंदू उर्दू के फसीहों से मेहरबानी के लिये 'कृपा' और दया का ही व्यवहार करते थे। 'कृपा' और 'दया'! मुई संस्कृत के शुद्ध तत्सम!! इसी से तो सैयद इंशा को यह घोर फतवा देना पड़ा कि—

“व मतलब अर्ज़ी तूल मक़ाल ई बूदा अस्त कि मुहावरा उर्दू इबारत अज़ गोयाइये अहल इसलाम अस्त।" (वही, पृ॰ १५)

अच्छा, यही सही! सही उर्दू अहल इसलाम की ही सही। लेकिन नहीं। इसलाम के भीतर भी तो बहुत से कुँजड़े कबाड़े और बेहने भर गए हैं। फिर उनकी जबान सनद कैसे हो सकती हैं। सनद के लिये तो कुछ और ही होने की जरूरत पड़ती है। चुनांच: सैयद इंशा साफ साफ बता देते हैं कि—

"सिवाय बादशाह हिन्दुस्तान कि ताज फ़साहत बर सर ओ मीज़ेबद, चन्द अमीर मुसाहिब शाँ व चन्द ज़न क़ाबिल अज़ क़िस्म बेगम ख़ानम व कसबी हस्तन्द, हर लफ़्ज़े कि दरीहा इस्त़माल याफ़्त ज़बान उर्दू शुद न ई क हरकस कि दर शाहजहानाबाद मीबाशद हरचि गुफ़्तगू कुनद मोतबर बाशद।" (वही॰ पृ॰ ६४)

मुस्तनद उर्दू के लिये जिन चंद लोगों का उल्लेख किया गया है उनके लिये भी अभी एक शर्त बाकी है। कोई 'बादशाह या 'अमीर', या 'मुसाहिब', या 'बेगम', या 'ख़ानम', या 'कसबी' होने से ही जबान के लिये प्रमाण नहीं हो सकता। इसके लिये तो असल शर्त यह है कि वह कुलीन हो और उसके माता-पिता