पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

पक्के शाहजहानाबादी हों। वहीं की पाक खाक से बने हों। तभी तो सैयद इंशा साफ फरमाते हैं—

"लेकिन असलश शर्त अस्त कि नजीब बाशद याने पिदर व मादरश अज़ देहली बाशद दाख़िल फ़ुसहाय गश्त।" (वही॰ पृ॰ ६६)

सैयद इंशा की 'मुस्तनद उर्दू' की कसौटी खरी न उतरी। लखनऊ के चमक उठने पर उसकी छबि मारी गई। वह मंसूख़ कर दी गई और उसकी जगह उस जबान की कठपुतली खड़ी की गई जिसमें 'आँख' की जगह 'चश्म' और 'कान' की जगह 'गोश' दिखाई देने लगे। 'नासिख़' की कृपा से लखनऊ 'इस्फ़हान' हो गया और मुस्तनद उर्दू से सदा के लिये हिंदी को बिदाई मिल गई। 'नासिख़' ने कड़ा नियम बना दिया कि—

"जिस लफ़्ज़ हिन्दी में अह्ल उर्दू ने तसर्रुफ़ करके लफ़्ज़ बना लिए हैं उनके सिवा हिन्दी लफ़्ज़ों का इस्त़माल जायज़ नहीं और जिस लफ़्ज़ में तसर्रुफ़ न हुआ हो उसको इस्त़माल फ़सहा के मुताबिक बाँधना चाहिए।" (जलवये ख़िज़्र, हिस्सा दोयम, आरा, सन् १८८४ ई॰ और पृ॰ ३२९)।

और "चूंकि इसमें हर शख़्स को दख़ल देना मुश्किल था इसलिये असूल इनका यह रखा कि फ़ारसी और अरबी अल्फ़ाज़ जहाँ तक मुफ़ीद माने मिलें हिन्द अल्फ़ाज़ न बाँधो।" (वही, जिल्द अव्वल, पृ॰ ८४ फुटनोट)

'नासिख़' का जादू सर पर सवार हो गया और—

"बाद गदर के अह्ल लखनऊ की सुहवतों ने तमाम हिन्द में असूल ज़बान लखनऊ को जारी कर दिया और देहली ने भी अपनी पुरानी गुदड़ी में नये नये पैबंद लगाए और बहुत सी पुरानी तरकीबों और पुराने मुहावरों को छोड़