पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/५२

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खैर, इस प्रसंग को यहीं छोड़ तनिक यह भी देख लीजिए कि 'हिंदुस्तानी लुग़त' के विधाता डाक्टर मौलाना अब्दुल हक के 'पंद्रह रोज़: अखबार' में इस 'कमेटी' के बारे में क्या प्रचार किया जा रहा है। दूर जाने की जरूरत नहीं। अभी अभी दावे के साथ उसमें कहा गया है कि—

"हिन्दोस्तानी ज़बान की जो तारीफ़ की गई है, उसमें साफ़ तौर से मज़कूर है कि यह ज़बान सिर्फ़ वही है जो शुमाली हिन्दोस्तान में आम तौर से बोली जाती है, जिससे अंदाज़ह होता है कि आजकल की हिन्दी को हिन्दोस्तानी नहीं समझा जाता। लेकिन डिक्शनरी मुस्तलहात और रीडरों की तरतीब में इस हिन्दी को फिर तसलीम कर लिया गया है और कहा गया हैं कि दोनों ज़बानों से अल्फ़ाज़ लिए जायँ। दिल के चोर को छिपाने की यह कोशिश हिन्दीनवाज़ों की तरफ़ से एक अरसः से हो रही है। कुछ इस किस्म की सूरत इस कमेटी में भी नज़र आती है। बहरहाल उस ज़ेहनियत को जो हिन्दीपरस्तों में फैलती आ रही है और जिसकी नशोनुमा गांधी जी बड़े ज़ोरशोर से कर रहे हैं, इस कमेटी से कोई ख़ास उम्मीद वाबस्तः करना मुश्किल मालूम होता हैं।" (हमारी ज़बान, वही १ सितम्बर १९३९ ई॰ पृ॰ ११)

'डिक्शनरी' का कोई रूप तो अभी हमारे सामने नहीं आया पर भाग्यवश 'महमूद सीरीज़' की 'रीडरों का दर्शन हो गया। उसकी रचना जिस हिंदुस्तानी जबान में हो रही है उसका नमूना देखिए। हम हिंदुओं की आदत हो गई है कि 'राम' ही से काम का आरंभ करते हैं और समझते भी हैं उन्हीं को एक आदर्श राजा।