पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/५३

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इसलिये प्रमाण के लिये ‘श्रीरामचंद्रजी’ को ही ले लीजिए। उस ‘सीरीज़’ में आपका नंबर ४० है। इसलिये किसी को किसी प्रकार की अड़चन भी न होगी, यह नंबर शामियों को अत्यंत प्रिय है। अच्छा तो हमारी सच्ची हिंदी हिंदुस्तानी का नमूना यह है―

“बहुत पुराने जमाने की बात है कि अयोध्या में दशरथ नाम के एक राजा राज करते थे, उनके राज में रैयत बड़ी खुशी के साथ अपनी जिन्दगी बिताती थी। बादशाह इतने अच्छे थे कि वे कभी किसी को किसी चीज को तकलीफ न होने देते थे। सभी रियाया उनसे खुश थी। बादशाह के तीन रानियों थी। तीनों के नाम कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा थे। ये तीनों रानियाँ इस तरह हिलमिल कर रहनी थीं मानो तीनों अपनी ही बहन हों, सभी रियाया और रानियों को खुश देखकर बादशाह का भी दिल खुशी के मारे फूल उठता था।” ( श्रीरामचन्द्र जी पृ० १)

'राजा' और 'प्रजा' की जगह यदि 'बादशाह' और 'रैयत' को मिल गई तो कोई बात नहीं पर 'सगी' की जगह 'अपनी' को क्यों दे दी गई? हैरान न हों बल्कि बोलचाल के मुहावरों को अच्छी तरह नोट कर लें। नहीं तो फिर कभी किसी दूसरे राज में यह बोली नसीब न होगी। देखिए तो सही, कितनी सटीक बोल चाल की ठेठ हिंदुस्तानी बानी है। आप कहते हैं―

“बादशाह ने इन्हें पढ़ाने के लिये एक गुरु वहाल कर दिया! गुरु जी सभी लड़कों के पढ़ाने के तरीके से पूरे वाकिफ थे। वे हर घड़ी इन्हें अच्छे रास्ते पर चलने की तालीम देते थे। कुछ ही दिनों में बादशाह के चारों वेटों ने सभी तालीम अच्छी तरह सीख ली।” ( वही पृ०२ )