पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/५६

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'शोभा और ऐवान' की जगह 'भवन' का प्रयोग तो हिंदुस्तानी में हो नहीं सकता, पर हिंदुस्तानियों की समझ में आ जाने के लिचे उनका प्रयोग आवश्यक क्या अनिवार्य है। तभी तो अर्थ में उनका विधान किया जाता है और फुटनोट की सृष्टि होती है। इस 'कौमी तराना' में 'तराना' क्या गजब ढा रहा है। यदि स्व- र्गीय सर मुहम्मद इकबाल हिंदुस्तानी नरल से न होते तो हरगिज ‘हिंदुस्तानी बच्चों का कौमी गीत’ न लिखते और इस तरह अपना कोई और ही 'ताराना' लिखते। 'लंका से ता कोह-हिमाला' इस 'क़ौमी तराना' का प्रचार अवश्य हो जाना चाहिए क्योंकि इसमें 'टीपू' और 'पोरस' 'पैदा कर' की प्रार्थना की गई है जिनके हारने की शान निराली है। जीतने का काम तो कभी हिंदुस्तान ने किया ही नहीं पिर उसके विजयी वीरों का उल्लेख कहाँ से हो कोई 'अकबर' या 'अशोक' कहाँ मिले!

हो ले, 'होनहार' भी हो ले। इसे होनहार पर छोड़ थोड़ा फिर 'हिंदुस्तानी लुगत' पर विचार कीजिए और कृपया भूल न जाइए कि यह वही हिंदुस्तानी है जो शुमाली हिंद में बोली जाती है, याने उर्दू है, हिंदी नहीं। अब इस 'हिंदुस्तानी' की 'लुरान' भी वही बना सकता है जो 'उर्दू' हो 'हिंदी' नहीं, 'दरवारी' हो घर- बारी नहीं, 'सरकारी' हो इम्दादी नहीं। अत: कोई कारण नहीं कि 'हिंदुस्तानी डिकशनरी' का सारा भार किसी उर्दूपरस्त को न सौंप दिया जाय और उसकी देखरेख उसका कोई हमदर्द न करें। किसी हिर्दाउर्दूदाँ की जरूरत तो तब होती जब