पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/६०

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रही है। मसिजीवी तथा सरकारी होने के कारण उनका उर्दू (दरबारी) से भी गहरा संबंध हो गया था और फलतः आज भी किसी न किसी रूप में बना ही रह गया है। अब सर जार्ज ग्रियर्सन और डाक्टर धीरेंद्र वर्मा के प्रमाण पर उन लोगों को भी उर्दू में गिन लीजिए जो देखने में हिंदी दिखाई दे रहे हैं पर वास्तव में हैं मसिजीवियों की परंपरा में, अर्थात् उर्दू के हमदर्द। अतः विवश हो हमको मानना पड़ता है कि उक्त 'कमेटी' को हम किसी प्रकार भी शुद्ध 'हिंदुस्तानी' कमेटी नहीं कह सकते। हाँ, यदि कोई उसे प्रच्छन्न 'उर्दू' कमेटी कहना चाहे तो हम उसकी जवान भी खींच नहीं सकते। कारण, उर्दू के नामी पेशवा उर्दू को ही 'हिंदुस्तानी' के नाम से चालू करना चाहते हैं और उसी के लिए प्राणपण से प्रयत्न कर रहे हैं। यदि यकीन न हो तो 'हमारी जवान' के कारनामों को देखिए और अल्लामा सैयद सुलैमान साहब नदवी के व्याख्यानों को पढ़िए। अंजुमन तरक्की उर्दू (हिंद) के मुखपत्र 'उर्दू' का तो धर्म ही है 'उर्दू' का प्रचार करना। अतएव उसका उल्लेख ही व्यर्थ है। परंतु याद दिलाने और गौर करने की बात यह है कि उसी के प्राण मौलवी अब्दुल हक उक्त 'हिंदुस्तानी लुगत' के विधाता हैं जिसमें उर्दू के 'मुस्तनद मुसन्निको' की सनद बटोरी जा रही है और एक तिलिस्म के द्वारा बात की बात में एक 'आमहम जबान' को 'खासपसंद' बनाया जा रहा है। क्यों न हो, आन्जिर उर्दू है भी तो दरबारी जबान? फिर दरबार उसकी दस्तगीरी क्यों न करें! और प्रजा उसकी