पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/६१

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भगतिन क्यों न बने! हम हिंदियों के लिये तो 'यथा राजा तथा प्रजा' की बात निराली नहीं है, यह तो हमारा एक सनातनी सत्य है, फिर आक्षेप कैसा?

अस्तु। अधिक न कहकर अब स्पष्ट निवेदन यह कर देना है कि हम किसी प्रकार भी उक्त 'कमेटी' को साधु नहीं समझते, और न उन लोगों की 'लुरात' को 'हिंदुस्तानी लुरात' ही क़रार दे सकते हैं जो सचमुच हिंदुस्तानी का अर्थ उर्दू समझते और बोलचाल को ठेठ बोली को 'मुस्तनद मुसन्निफ़ों' की विलायती कसौटी पर कसते हैं। हमारी 'हिंदुस्तानी डिक्शनरी' तो वह डिक्शनरी होगी जो ठेठ हिंदुस्तानियों के बोलों को लेकर आगे बढ़ेगी और उन सभी बोलचाल के अरबी, फारसी या विलायती शब्दों को अपने आप में समेट लेगी जो कभी के उसकी कैद में आकर उसके हो चुके हैं। वह तो 'इस्तयाज़ी' उर्दू की क़ैद में हरगिज नहीं रह सकती। उसे तो जी जान से 'हिंदुस्तानी' होना है और व्यक्त करना है सच्चे हिंदुस्तानियों के हृदय को। फिर वह किसी किताबी कीड़े की पाबंद क्यों रहे? क्यों न शुद्ध, खरे और सटीक हिंदुस्तानी शब्दों को चुने और गवाँरों की गवाँरी भाषा को भाषा की जान समझे? किसी की 'पेंच' में पड़ कर अपने सच्चे स्वरूप को भुला देना त्याग नहीं कायरता है। निदान, हमें सबके स्वरूप की रक्षा करनी चाहिए और देश में उस भाषा का प्रचार करना चाहिए जो सचमुच देशभाषा हो, किसी कठहुज्जत की कठपुतली या शैतानी गँठजोड़ नहीं।