पृष्ठ:बिहार में हिंदुस्तानी.pdf/८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ६ )

के लिये भूल जाना चाहिए कि उर्दू का 'लश्कर' या 'बाजार' से भी कोई संबंध है। 'उर्दू' का अर्थ 'छावनी' होता अवश्य है। शाही शिविर को उर्दू अवश्य कहते हैं। पर हमारी 'उर्दू' का लश्कर या बाजार से कोई लगाव नहीं। यह तो देहली दरबार की एक नई दरबारी ईजाद हैं। सैयद इंशा दरिया-ए-लताफत (सन् १८०७ ई.) में फरमाते हैं कि-

"यह मजमा जहाँ कहाँ जाता है उनकी औलाद को 'दिल्लीवाल' और उनके महल्ले को मुहल्लः अह्व-देहली' कहते हैं। और अगर यह लोग सारे शहर में आबाद हो गए तो उस शहर को 'उर्दू' कहते हैं, लेकिन सिवाय लखनऊ के इन लोगों का किसी और शहर में जमा हो जाना फ़कीर के नजदीक साक्ति नहीं। वो मुर्शिदाबाद और अज़ीमाबाद के बाशिन्दे बजात खुद अपने को 'उर्दूदों' और अपने शहर को 'उर्दू' समझते हैं। (तारीख शुअरा-ए-बिहार, कौमी प्रेस, बाँकीपुर पटना, सन् १९३१ ई०, पृ० १ पर उद्धृत)

'उर्दू' के विषय में सैयद इंशा ने जो कुछ कहा है उसका सीधा सादा अर्थ यह है कि दरहकीकत उर्दू एक शाही शानशौकत का वाचक शब्द है न कि किसी लश्कर या बाजार के सामान्य लोगों का परिचायक। बात यह है कि मुगल सम्राटों में शाहजहाँ एक शाही शानशौक्त का शासक हो गया है। एक दिन उसके जी में आ गया कि उजड़ी दिल्ली को फिर से आबाद कर दो। फिर क्या था, एक नया शहर शाहजहानाबाद बस गया और उसमें शाही स्थान को 'उर्दू-ए-मुअल्ला' का खिताब मिल गया। 'उर्दू-ए-