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मुअल्ला' नाम रखने का एक मात्र कारण यह था कि राजधानी आगरा में थी, शाहजहानाबाद एक बड़ी छावनी भर था।

'देहली' को चर्चा हम पहले भी कर चुके हैं। यहाँ इतना स्पष्ट कर देना है कि यह 'उर्दू' वस्तुतः उक्त 'देहलवी' से सर्वथा भिन्न है। यह 'उर्दू' देहली की सामान्य जनता की बोली नहीं बल्कि 'किला मुअल्ला' को एक नई ईजाद है। सुनिए, वहीं के सैयद इंशा क्या फरमाते हैं―

"खुशंबयानान, आंजा मुत्तफ़िक शुदः अज़ ज़वानहाय मुतफ़िद अलफ़ाज़ दिलचस्प जुदा नमूदः व दर बाजे इबारात व अल्फा़ज़ तसरुफ़ बकार युर्दः ज़बाने ताज़ः सिवाय ज़बान हाय दीगर बहन रमानीदन्द व बउर्दू मौसूम नाख़तन्द।" ( दरियाए लताफत)

सैयद इंशा ने कितना स्पष्ट कर दिया है कि उर्दू एक 'ताजः ज़बान' है और अन्न अनेक भाषाओं में से कतरच्योंत और काट छाँट कर कुछ इधर उधर फेरफार कर बना ली गई है। उसके विधाता शाहजहानाबाद के कुछ खुशवयान लोग ही हैं। उनकी यह 'ताज़ः जबान' कितनी 'आमफ़हम' या बोलचाल की है जरा इसे भी देख लें। वहीं सैयद इंशा फिर बजात खुद फरमाते हैं―

"हम चुनीं सक्नः महाल्लात दोगर कि बाजे़ अज़ सुहबत वालिदैन जबान याद दाइतः व बाजे़ ज़बान फ़रीदाबाद व बाजे ज़बान रुहतक व बाजे़ ज़बान सोनीपत व बाजे़ ज़वान मीरट याद गिरिफ़्तः बा रोज़मर्र-ए-उर्दू ज़म नमूदः अन्द वखुदा कि गुफ्तगूयशां शाबीह बजानवरे अस्त को चेहरा अश चेहरा