पृष्ठ:बीजक.djvu/११४

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रमैनी । आजुकाजजियकाल्हिअकाजाचलेलादिदिग्गंतरराजा॥४॥ सहज विचारत मूल वाई । लाभतेहानि होय रे भाई॥९॥ ओछी मती चन्द्रगो अथई । त्रिकुटीसंगमस्वामी वसई॥६॥ तवहींविष्णु कहासमुझाई । मेथुनाष्ट तुमजीत जाई ॥७॥ तवसनकादिकतत्त्वविचारााज्योधनपावहिरंकअपारा ॥८॥ भोमय्यद वहुत सुखलागा। यहिलेखे सवसंशयभागा॥९॥ देखत उत्पति लागु न बारा। एकमरै यककरै विचारा॥१०॥ मुये गये की काहु न कही। झूटी आश लागिजवरही॥११॥ साखी ॥ जरत जरत से वाचहू, काहेन करहु गोहारि ॥ | विषविषयकवायडू, रातदिवसमिलिझारि॥१२॥ नहिपरतीतिजोयहिसंसाराद्रव्यकचोटकठिनकोमारा॥१॥ | साहब कहैं। यह तो उपदेश इमकरते हैं तुमसबको परतीति जो नहीं आई सोयहि संसार में पृथ्वी १ अप २ तेज ३ वायु ४ आकाश ५ दिशा ६ कालमन ८आत्माको धोका ब्रह्म९ई नवौ द्रव्यकी चोट कठिन कौन मारयो तुमको जाते तुम या मारयोकि शरीर मैंहींह देवता मैंहींहूं ब्रह्ममैहींहीं सो तुम भूलगये नवौ द्रव्य मेराही शरीर है ताको न जान्यो तुम । तामें प्रमाण ॥ ( खंवायुमग्निंसलिलंमहींच ज्योतींषिसत्वानिदिशोद्मादीन् । सरित्समुद्राश्चहरेः शरीर यत्किचभूतप्रणमेदनन्यः ) ॥ इतिभागवते ॥ ( यात्मनितिष्ठन्यममानवेदयस्यात्माशरीरमितिश्रुतिः ॥ १ ॥ ) सोतो शेषे जाय लुकाई। काहूके परतीति न आई ॥ २॥ साहेब कहैं है हे जीवौ ! चित् चिन् जगतरूप जो मेरो शरीर तामें तुम द्रव्यबुद्धि किये हौ सो त्यागिदेहु । यह मेराही शरीर कैकै देखौ तौ नित्य है।