पृष्ठ:बीजक.djvu/१४१

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(९० ) बीजक कबीरदास । | अनंत जे लोक तिनमें अनंत जे ब्रह्मा बिष्णु महेश शक्ति तिनकी भक्ति कारिकै वही ब्रह्माण्डनमें अनिर्वचनीय को खोजने लगे अरु वहीं को अनंत लोकमें बहुत सेवाकरि गंधर्व मुनि देबता खोजनलगे ॥ ३ ॥ ४ ॥ साखी ॥ यती सती सबखोजहीं, मनै न मानहारि ॥ बड़े बड़े वीरवाचेंनहीं,कहहिकबीरपुकारि ॥६॥ औ यती सती सब मनमें हारि ना मानिकै वही अनिर्वचनीय जो मायाब्रह्म ताहीको खोनैहै सो कबीरनी कहै हैं कि, मैं पुकारकै कहाँह या माया ब्रह्मके धोखाते बड़े बड़े बीर नहीं बचे है के कोई बिरले संत साहबको जानै हैं तेई बाचे हैं तामें प्रमाण कबारजाको ॥ (रसुना रामगुणरमिरमि पीजै । गुणातीत निर्मूलक लीजै । निरगुण ब्रह्मनपौरे भाई । जेहि सुमिरत सुधिबुधि सब पाई। विषतजिराम न जपसि अभागे । काबूड़ेलालचकेलागे । ते सब तरे रामरस स्वादी । कह कबीर बूड़े बकवादी ) ॥ ५ ॥ | इति पचीसवीं रमैनी समाप्तम् ।। अथ छब्बीसवीं रमैन । चौपाई ।। | आपुहि करता भे करतारा । वहुबिधि बासनगदै कुम्हारा विधनासवैकीनयक ठाऊँ । अनेक यतनकै वनकवनाऊ२ | जठरअग्निमहँदियपरजाली । तामें आपुभये प्रतिपाली ३ | वहुत यतनकै बाहर आया । तब शिवशक्ती नामधराया ४ घरको सुत जो होय अयाना । ताके संग न जायसयाना सांचीवात कहीं मैं अपनी । भया देवाना और कि सपनी६ गुप्त प्रगट है एकै मुद्रा । काको कहिये ब्राह्मण शुद्रा ॥ ७॥ झूठ गर्व भूलै मति कोई । हिन्दू तुरुक झूठ कुल दोई ॥८॥