पृष्ठ:बीजक.djvu/१५१

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(१००) बीजक कबीरदास । अमरपद कहे आत्माको जो स्वस्वरूपहै सो साहवाअंशहै दासहै सोई । अमरहै ताको ज्ञान नियरेते दूरिहै औबाहिरेहैं इहा नियरेते दूरि कह्यो ताते अपनेको ज्ञाननहीं है औ बाहिर है कहे बहुत दूरि देखि परैहै परन्तु जो सतगुरु भेद बतावै है तौ ज्ञान होइहै आत्माके स्वरूपको नॉनैहै ताकी साहब निकटही है। काहे घटघटमें तो पूर्ण है तौ आत्माके निकटहै ॥ ८ ॥ इतितीसवीं रमैनी समाप्ती । अथ इकतीसवीं रमैनी। | चौपाई ।। स्मृतिआहि गुणनकोचीन्हापापपुण्यको मारगलीन्हा॥ स्मृति वेद पढेअसरारा । पाखंड रूप करै अहँकारा॥ २॥ पढ़े वेद औ करै वंड़ाई । संशय गाँटिअजहुँनहिंजाई ॥३॥ पट्टिकैशास्त्रजीवबधकरई। मूड़ काटि अगमनकै धरई॥४॥ साखी ॥ कह कबीर पाखण्डते, वहुतक जीव सताय ॥ अनुभवभाव न दर्शई, जियत न आपुलखाय॥६॥ स्मृति आहिगुणनकोचीन्हा। पापपुण्यकोमारगलीन्हा १॥ स्मृतिवेदपढ़े असरारा। पासँडरूप करै अहंकारा ॥२॥ | स्मृति गुणनको चीन्हा आहि कहे तीनगुण स्मृति में देखिपरै है काहेते कि पाप पुण्यको मार्ग चीन्हे हैं अर्थात् पापपुण्यके मार्ग वाहीते जानिपरैहैं ॥१॥ रारा जो जीव स्मृति वेदका असपढ़ताहै पाखण्डरूप वैकै या अहंकार करैहै। जानिबेकेलिये नहीं पैदैहै अर्थात् हमविद्यामें जीतै कोई विद्यमानजानि हमैं मानै चेलाहोइ इत्यादिकछु आपनै न पड़े है ॥ २ ॥ पढ़े वेद औ करै वड़ाई । संशय गांठ अजहुंनहिंजाई ॥३॥ | पांढ़कैवेदजीववध करई । मूड़काटिअगमनकै धरई॥ ४॥