पृष्ठ:बीजक.djvu/१७६

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( १२६ )
बीजक कबीरदास ।

(१२६) बीजक कबीरदास । नेभर झाण्डके भीतर ते सब नाशमानहैं संसार समुद्र में ऐसी माया लपेट्यो कि यह मत्स्य( जीव )माया द्वै गई अर्थात् मिलिगई है कहे जीवनको शरीरमें डारिदियो है शरीरही देखपरे है जीवको खोजनहीं मिले है भीतर बाहरमनमास आदिक वह जड़ मायहीदेखिपरैहै यमरा जो ढीमर कालहै सो शिकार खेलैहै तातें कोई नहींउर्वरैहै कोई हालहीमहै। कोईमहाप्रलयमें मैरैहै ॥ १ ॥ ५ ॥ इति छियालीवी रमैनी समाप्त । अथ सैंतालीसवींर मैनी । चौपाई। जरासंध शिशुपालसँहारा । सहस अर्जुनै छल सों मारा। वड़छल रावणसो गये वीती। लंकारह कंचनकी भीती२ दुर्योधनअभिमानहिंगयऊ। पंडवकेर मरम नहिंपयऊ॥३॥ मायाके डिभगे सवराजा । उत्तम मध्यम वाजनवाजा ४ छांचकुवैवितधरणिसमाना । कौजीवपरतीति नआना ५ कॅहलौं कहाँ अचेते गयऊ । चेतअचेत झगर यकभयऊ ६ साखी ॥ ईमाया जग मोहिनी, मोहिसि सब जगधाइ ॥ हरिचन्द्र सतिके कारने, घर २ गये विकाइ॥७॥ ये ने राना वड़े २ गनाय आये तेसब मारेपरे कोई उत्तम कोई मध्यम कोई निकृष्ट कर्मकारकै गये सो कहालौं मैं कहाँ चित अचितके झगरा ते कहे चिंत जीव अचित माया ई दून के संयोग ते सब जीव पृथ्वीमें मिलिगये अपन शुद्ध आत्माको न जानत भये यह माया जहै जगमोहनी सोसब जगको धायकै मोहिलेतभई हरिश्चन्द्र नेराजाहें तेसत्यके कारणे विद्यामाया में बँधिकै घर २ बिकाय नातभ३ पुत्र बिकानो स्त्री बिकानी ॥ १ ॥ ७ ॥ इति सैंतालीसवीरमैनी समाप्त ।