पृष्ठ:बीजक.djvu/१९४

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( १४४ )
बीजक कबीरदास ।

( १४४ ) बीजक कबीरदास । | साखी । पाहन है ह्व सवचले, अनभितियन को चित्त । जासा कियो मिताइया, सो धनभे अनहित्त॥४॥ चढ़तचढ़ावतभड़हरफोरी । मननहिंजानैंकोरिचोरी॥१॥ चोर एकमूसलसंसारा । विरला जनकोइजाननहारा ॥२॥ स्वर्ग पतालमृमिलैवारी । एकैराम सकल रखवारी॥ ३॥ गुरुवालोग आप प्राण चढ़ावै हैं अरु और को सिखैसिखे प्राण चंवा हैं। सोयही प्राण चढ़त चढ़त भड़हर जो ब्रह्म ताके फोरि कै वही धोखा ब्रह्ममें लीनभये मनते । या नहीं जाने हैं कि साहब के ज्ञानकी चोरी को करैहै वही धोखा ब्रह्मही तो करै। यही नहीं जाने हैं वाही में लगे हैं॥१॥सो चोर एक जो धोखाब्रह्लह सोसंसारभरेको मूसिलियो अर्थात् ब्रह्मही के ज्ञानको सबदौरे हैं परमपुरुष को नहीं दौरे हैं तेाहते कोई बिरलानन परमपुरुष ने श्रीरामचन्द्र हैं। तिनको जानैहै ॥२॥ जेश्रीरामचन्द्र एक स्वर्ग पाताल भूमि को बारीकेसम रख- वारी कहे रक्षा करै हैं इहां एकैराम रखवारेहै यह जो कह्यो ताते बँधनवारे धोखा देनवारे बहुत हैं पै बंधनते छोड़ावन वारे एक श्रीरामचन्द्रई हैं दूसरों नहीं है स्वतऊपरके भूमिते मध्यके पातालते नीचे लोक सबआये ॥ ३ ॥ साखी ॥ पाहनलैलै सवचले, अनभितियन को चित्त ॥ जासों कियो मिताइया, सो धनभे अनहित्त॥४॥ अनभितियाको चित्तजे धोखाब्रह्महै तौनेमें लगिकै संपूर्ण जे जीव ते पाहन द्वैगये कहेजड़वत् द्वैगये वे धनते छोड़ावनवारे श्रीरामचन्द्रको न जानत- भये जैन ब्रह्मते सबनीव मिताई कियो सो अनहितभये कहे संसार में हार- वारो धोखई ठहरयो ॥ ४ ॥ इति उनसठवीं रमैनी समाप्त ।