पृष्ठ:बीजक.djvu/२१८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

( १६८) बीजक कबीरदास । चाहै हैं और तो अज्ञानी जीव अपनो भूल न जानेंगे याहीजानेंगे कि जोसाहब सवको मालिक है सब करिबेको समर्थहै ताकी जो इच्छा होती तौ हमसब जीवके बंध ते तामेंप्रमाण॥ ‘‘सपरंतु दुखावत शिर धुनिधुनिपछिताय। कालहि कर्महि ईश्वरहि मिथ्यादोष लगाय’ ॥ ७ ॥ इति तिहत्तरवीं रमैनी समाप्ता ।। अथ चौहत्तरवीं रमैनीं । चौपाई। तहिया गुप्त थुलनाहिं कायााताके सोग न ताके माया॥१॥ कमल पत्र तरंग यकमाहीं।सङ्गहिरहै लिप्त पै नाहीं ॥२॥ आश ओसअंडन महँ रहइ।अगणितअंड न कोईकहई॥३॥ निराधार आधार लैजानी । रामनाम लैउचरी वानी॥४॥ धर्मकहै सब पानी अहई । जातीके मन वानी रहई॥ ६ ॥ ढोर पतंग सरै घरिआरातेहि पानी सब करै अचारा॥६॥ फद् छोड़ि जो बाहर होई । बहुरि पंथनहिं जोहै सोई ॥७॥ साखी ॥ भर्मक वांधल ईजगत, कोइ न किया विचार ॥ हरिकि भक्तिजानेविना, भवबूड़ि मुवासंसार॥८॥ तहियागुप्त थूलनहिंकाया। ताकेसोगनताके माया ॥१॥ कमलपत्र तरंगयक माहीं । संगहिर है लिप्तपै नाहीं ॥२॥ आशओमअंडनमहँरहई । अगणितअंडनकोईकहई ॥३॥ निराधारआधार लैजानी। रामनाम लैउचरीबानी ॥४॥