पृष्ठ:बीजक.djvu/२४

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कबीरजीकी कथा । (२१) सबके उपर शकट यक माहीं । लिख्य राम अक्षर दै काहीं ॥ सहसहु शकट साहढिग भेना । प्रगटयो राम नाम कर तेजा ॥ सकल शास्त्र सब कागज़ माहीं । लिखिगे आपहि ते श्रम नाहीं ॥ दौहा-हिंदू और मलेच्छह, चहैं जो भतके ग्रंथ ॥ सो तेहि ते निकसन लगे, और सकल सतपंथ॥ ९ ॥ जानि प्रभाव सिकंदर शाहा । काशीको आयो सउछाहा ॥ तब सह पंडित चलि फिरियादा । छूटी दोउ दान मर्यादा ॥ यक जालहा चेटक पढि आयो । करि जादू विश्वास बट्टायो । तब कबीरको शाह बोलायो । जब कबीर दरबारहि आया । काजी कह करु साह सलामा । तब कबीर बोल्यो सुखधामा ॥ जानहिं राम सलाम न जानै । सुनत शाह कियं कोप महानै ॥ दियो हुकुम करियो नहिं देरी । गंगा बोरहु भरि पग बेरी ! सुनि अनुचर पग पाई जैनी रे । बोरयो गंगा माहू कबीर ॥ रहिंगै बेरी नार गैंभीरा । गंग तीर भो ठाढ़ कबीरा ॥ पुनि लकरी पट अंगणि बांधी । आगि लगायो कोठरि धांधी ॥ भयो भस्म तनुको सब मैला । निकस्यो कंचनरूप उतैला ॥ पुनि इक मत्त मतंग बोलायो । कचरावन हित सौ हँधवायो । दोहा--गजको सिंह स्वरूपसो, देखो परो कबीर ॥ | भग्यो चिकारत नाग तब, भरयो महा भय भीर॥ १० ॥ बादशाह अस देखि प्रभाऊ । पकरयो आय कबीरहि पाऊ ॥ देख्यों करामात मैं तेरी । अब रक्षा करु जगते मेरी ॥ मोसे भयो बडो अपराधा । दीन्हो रामदासको बाधा ॥ देशगाउँ धन जो कहि दीनै । सो याही क्षण प्रभु लैलीजै ॥ कह्यो कबीर रामको चाहैं । ग्राम दामसों काम कहा हैं । तबै विरोधी पंडित नेते । विरचे यह उपाइ तह तेते ।। श्रीवैष्णव दश पांच बनाई । दियो सकल देशन गोहराई ॥ यह कबीरको नेवतो जान । सबकवीर घर करो पयानो ॥