पृष्ठ:बीजक.djvu/२४२

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(१९२) बीजक कबीरदास । तब बिना चरणनको कहे संसारमुख चलिबो ब्रह्ममुखचलिबोयाको छूटिगयो ।। अर्थात् येई चरणहैं तिनते ह्यन है गयो । तब नवधाभक्तिको छोड़िकै दश कहे दशौ जो साहबकी “अनुरागात्मिका' भक्तिहैं तोनके दिशाको धावै है । अथवा नवद्वारको छोड़िकै दशौ दारको जो है मकरतार साहब के इहांकी डोर लगी है तहांको धावै है । औ शरीरनको जे प्राकृत नयन हैं ते याके न रहि- गये । साहब को दियो जो याको हेसस्वरूप है तैौने के नेत्रकरि कै साहब को चिददिद् रूप यह संसार सो सूझि परन लग्यो कहे बुझिपरनलग्यो । तब अरेमूढ़ ! भ्रमरूपजो है ससा खरहा अहं ब्रह्म विचार सो, तें जो है समर्थ सिंह ताको ग्रासै है । सो वहतो धेाखाहै वहीं भर्म भूलि गयो । सो हेनावो ! यह अचरज कोऊ बुझौ । औ जौनज्ञान मैं कहि आयो तैौनकर साहबमें लगो । जो कबहूँ न होई नई बात होय सो यह आश्चर्य है । ससा सिंहको कबहूं नहीं खाइहै जीव ब्रह्म कबहूँ नहीं होय है सो तुम कबहूं ब्रह्म न होउगे । वह ब्रह्म तुम्हारईं अनुभवहै ताहो में तुम भुलाने हौ ॥ ३ ॥ औंधे घड़ा नहीं जल भरिया सूधे सों घट भरिया ॥ जेहि कारण नर भिन्नभिन्न करु गुरुप्रसादते तरिया ॥ ४॥ | औंधा घड़ा जो जल में डाार दीनै तौ नहीं डूबैहै, जलनहीं भर आवैहै । सो तें जो साहबको पीठिकै ब्रझमें औ संसार में लगै सो तौ धोखा है। जैसे सुधे घटमें जलभरि आवै है तैसे तेंहूँ साहबकी ओर मुखकरु, जब साहब तेरेऊपर प्रसन्नहोइगो तबहीं तें ज्ञान भक्ति करिकै पूरा होइगो । जाकारण नर भिन्न भिन्न करै है कहे भिन्न भिन्न पदार्थ मानै है औ सब.पदार्थ साहबको चिदचिद् रूपक- रिकै नहीं देखें है। सो यह भ्रम समुद्र गुरु सबत श्रेष्ठ अंधकारको दूरिकरनवारे परमपुरुष ने श्रीरामचन्द्र तिनके प्रसादते तरोगे । अथवा साहबके बतावनवारे अंधकारके दूर करनवारे जब गुरुमिलेंगे तब तिनके प्रसीदते तरोगे ॥ ४ ॥ पैठि गुफामों सब जग देखे वाहर कछुव न सूझै ॥ उलटा बाण पारथिव लागै शूरा होय सो बूझै ॥६॥ दुर्लभ मनुष्य शरीररूपी जो गुफाहै तौनेमें पैठिकै कहेशरीर पाइकै चिदचित