पृष्ठ:बीजक.djvu/२७६

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बीजक कबीरदास।
बीजक कबीरदास । साखी देकै जे कह्यो ताकोहेतु यहहै कि, संत समुझेंगे कि, सांच कहैं हैं कि, झूठ कहैं हैं । अथवा हे जीवा ! मेरो सिखावन सुन–श्रीरामचन्द्रकै चरणमें रतिमानिके जैसे, सब भयो है, नानामत किया है, तैसे, एकबार मेरो वचन सुनि रामचरणमें रतिमानिके संत होउ । व्यंग्य यह है कि, जो संतहाउगे तो नननमरणते रहित बैनाउगे औरी भांति न छूटौगे । अथवा अपना चतुर और को सिखवै कहे अनो चतुर नहीं है मायाही मैं परे हैं और और के कनक कामिनीमें सयानी कहे विचारकरावै है कि, कनक कामिनीरूप मायाको बिचारकै देख्यो या मिथ्या है। सो जो आप चतुर नहीं भये कनककामिनी नहीं त्यागे तो उनके उपदेशते कनककामिनी माया कब त्यागेंगे ॥ ४ ॥

इति तेरहवां शब्द समाप्त । अथ चौदहवांशब्द ॥ १४॥ रामरा संशय गाँठिन छूटे। ताते परि पकरि यमलूटै॥१॥ द्वै मसकीन कुलीन कहावो तुम योगी संन्यासी ज्ञानी गुणी शूर कवि दाता ई मति काहु न नासी ॥२॥ स्मृति वेद पुराण पढे सव अनुभवभाव न दुरशै । लोह हिरण्य होय धौ कैसे जो नहि पारस परशै ॥ ३॥ जियत न तरे मुये का तरिहौ जियतै जो न तैरै।। गहि परतीति कीन जिन जासों सोई त मेरै ॥ ४॥ जो कछु कियो ज्ञान् अज्ञाना सोई समुझु सयाना।। कहै कबीर तास का कहिये देखत दृष्टि भुलाना ॥५॥ राम रा संशय गांठ न छूटे। ताते पकरि पकरि यमलूटे।