पृष्ठ:बीजक.djvu/३१७

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शब्द। ( २६७) अनन्त सिद्ध खोज मरे पै गैयों कोऊ न खोजे पायो कि, सूत् है कि, असत् है तात्पर्य न जीने ॥ ५ ॥ ६ ॥ कहै कबीर सुनो हो संता जो या पद अस्थाई । जो या पदको गाइ विचार हे आगे लै तरिजाई ॥७॥ श्री कबीरजी कहै हैं कि, हे संतो ! सुनौ जो यह पदको अर्थं है कहे अर्थ विचार है औ जौन पद हम बर्णन करिआये सब ब्रह्माण्ड सप्ताबरण आदिदैकै जेपदहैं कह स्थान तिनको जोकोई गाइ कहे मायाको रूपही बिचारैगो कि यहां भरतो मायाही है सो मायाके आगे हैकै साहबको लोक विचारैगो सोर्ह तरैगो ॥ ७ ॥ इति अट्ठाईसवां शब्द समाप्त । अथ उन्तीसवाँ शब्द ॥ २९ ॥ भाई रे नयन रसिक जो जागै ।। परब्रह्म अविगत अविनाशी कैसेहु कै मन लागै ॥ १॥ अमलीलोग खुमारी तृष्णा कतहुँ सँतोष न पावै ।। काम क्रोध दोनों मतवाले माया भरिभरि प्यावै ॥२॥ ब्रह्म कलारचढ़ाइनि भाठी लै इन्द्री रस चाखे । सँगहि पोच है ज्ञान पुकारै चतुर होइ सो नावै ॥ ३॥ संकट शोच पोच या कलिमों बहुतक व्याधि शरीरा।। जहँवांधीरगैंभीर अतिनिर्मल तहँउठि मिलहु कबीरा॥४॥ यहां अब मायाकेपरे जे साहब हैं तिनको बतावै हैं । भाई रे नयन रसिक जो जागै । परब्रह्म अविगत अविनाशी कैसेकै मन लागै ॥ १ ॥