पृष्ठ:बीजक.djvu/३१८

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( २६८) बीजक कबीरदास । हे भाइउ ! नयन रसिकनहै संसारी चर्म चक्षुते भिन्नभिन्नदेखि बिषयरस लेनवारो से जो जागै कहे मुमुक्षुहोइ तौ ब्रह्मके पार औ अबिगत कहे बिगत नहीं सर्वत्र पूर्ण औ अबिनाशी कहे जाको नाश कबहूँ नहीं होइहै ऐसे में परम परपुरुष श्रीरामचन्द्र हैं तिनमें कैसैकै मन लागै जो कैसेहुके पाठहोय हैं। यह अर्थ है जो कैसेहुकै मन लगबो करै तौ बीचमें बहुत अवरोधहैं ॥ १ ॥ अमली लोग खुमारी तृष्णा कतहुँ सँतोष न पावै ।। काम क्रोध दोनों मतवाले माया भरिभरि प्यावै ॥२॥ सबलोग अमली हैं विषय छांया पैतृष्णाकी खुमारी लगी है अरु कहूँ संतोषको नहीं पावै है । फिर काम मत जो कोकशास्त्रादिक क्रोधमत जो मुद्राराक्षसादि ग्रन्थनमें प्रतिपाद्य ने मतहै तेई प्यालाहैं तिनका काम क्रोध रूप जो मद सो माया भरिभरि उन को पिआवै है ॥ २ ॥ ब्रह्मकलार चढ़ाइनि भाठी लैइन्द्री रसचाखै । सँगहि पोच होइ ज्ञान पुकारै चतुर होइ सो नाखै॥३॥ प्रथम तो काम धादिकनते जागन नहीं पावैहै जो कदाचित् जाग्यो तो ब्रह्म जो कलारे है जे अहं ब्रह्म बुद्धि केरै है गुरुवालोग जे भाटी चढ़ाइन ज्ञान सिखेवै लगे कि तुहीं ब्रह्महै ताहीं में इन्द्रिनको लैकरिकै अहंब्रह्मास्मिको रसचाखन लग्यो अर्थात् ब्रह्मानंदको अनुभव करनलग्यो जो मदपियै है ताको ज्ञान भूलि जायेहै यहै कहै कि मैही मालिकहीं सो जो गुरुबालगन को संगकियो ब्रह्मानंद पानकिया सो मैं साहवकोहौं यह अक्ल भूलिगई वहीं गुरुवा लोगनको ज्ञानदियो पुकारन लग्यो कि मैहीं ब्रह्महौं।पर जो चतुराहाइ सो बिघ्ननको नाकि नाइहै॥३॥ संकट शोच पोच या कलिमों बहुतक व्याधि शरीरा। जहँवा धीर गैंभीर अति निर्मल तहँ उठि मिलहु कबीरा॥४॥ | पोचकहे अज्ञानी जे जीव तिनको यहि कलि में कहे माया ब्रह्मके झगड्रामें बहुतसंकट शोचे औ व्याधिशरीर को है सोजहां अति धीर है कहे चलायभान नहीं है निश्चलपद है औ गंभीर कहे गहिरहै औ निर्मल कहे माया