पृष्ठ:बीजक.djvu/३३५

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ब्द । | ( २८५) ई संतो भाई ! तुम सुनौ मनते भिन्नāके साहबके मिलवेकी जोहै संधि भेद । तक कोई बिरला पायेहै अर्थात् जबभर मन बनारहै है तवभर वाको भूलिये* ४धि बनीही रहे है, मनते भिन्न बैंकै वाके भजन करिवेको उपायकोई बरा जानैहै ॥ ४ ॥ इति उनतालीसवां शब्द समाप्त । अथ चालीसवाँ शब्द ॥ ४० ॥ पंडित बाद बदौ सो झूठा । रामके कहे जगत गति पावे खांड़ कहे सुख मीठा॥१॥ यावक कहे पाव जो दाहै जल कहे तृषा बुझाई । भाजन कहे भूख ज भाऊँ तो दुनियाँ तरिजाई ।।२।। नरके संग सुवा हरि वोलै हरि प्रताप नहिं जानै । जो कबहूँ उड़िजाय जंगलको तौ हरि सुरात न आले विनु देखे विनु अरस परस वितु नाम लिये का होई । धनके कहे धनिक जो होतो निधन रहत न कोई ॥४॥ सांची प्रीति विषय मायासों हार भगतनी हाँसी ।। कह कवीर यक राम भजे बिन वांधे मधुर जासी॥६॥ | पंडित बाद बदौ सो झूठा। रामके कहे जगत गति पावै खांड़ कहे मुख मीठा॥१॥ सो हे पंडितौ जो बाद बदौहौ सो झूठा है काहेते कि, पंडिततो वह कहावै | है जाके सारासार बिचारिणी बुद्धि होइहै सो सारासार बिचारिणी बुद्धि तो तिहारे है नहीं पंडित भर कहावो हो । काहेते कि, सारशब्दको झटा कहीही यह बाद बदिकै रामके कहेते जो गति पावते ती खांड़ाकेह मुखमीठ वैजाते॥ १॥