पृष्ठ:बीजक.djvu/३४

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बीरजीकी कथा । | (३१) भविष्य की गायो । वर्णत तेहि मैं पार न पायो । यकवीर अगए निर्देशा । मम शासित वर्णित युगलेशा ॥ तामें सकल अहैं विस्तारा । जानिलेड सब संत उदारा ॥ | दोहा-और कबीर कथा अमित, वरणि लहौं किमिपार ॥ । संक्षेपैते इत लिख्यो, कीन्ह्यो नहिं विस्तार ॥ ३२॥ यथा बघेलवंशकी गाथा । वण्य भूत भविष्यहु नाथा ॥ वैसेहि अबौं प्रगट देखाती । पलहू बदै न पल घटि जाती ॥ मगहर गे यक समय कबीरा । लीला कीन्ही तजन शरीरा ॥ अतिशय पुष्प तुरंत मँगाई । तामें निजतनु दियो दुराई ।। सबके देखत तज्यो शरीरा । हिंदू यमनहुकी भै भीरा ॥ हिंदू यमन शिष्य रहे दोउ । आपूस में भावे सब कौउ ॥ | यमन कह्यो माटी हम हैं । हिंदू कहे अनलमें ले ॥ तब दोउ नाय पुष्पकॅह टारयो । नाहिं कबीर शरीर निहारयो । | आधे आधे है दोउ सुमना । दाह्यो हिंदू गाड्यो यमना ।। भये कबीर प्रगट मथुरामें । विचरन लगे सकल वसुधामें ॥ यहि विधि हैं अनेकनगाथा । सति कबीर है वपु जगनाथा ॥ . यह लीला कर सकल कबीरा । आयो बांधव पुनि मतिधीरां ॥ दोहा-अबलों गुहा कबीरकी, बांधवदुर्ग मॅझार ॥ | जगन्नाथ पंथ सो, पावत नहि कोउ पार ॥ ३३ ॥ इति श्रीभक्त मालान्तर्गत श्रीकबीरजी की कथा स्वामी युगलानन्द कबीरपंथी भारतपथिकद्धारा संशोधित समाप्त । -- -


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