पृष्ठ:बीजक.djvu/३४५

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शब्द । लै आवे हैं तौने मुर्दाको रसोईमें सिझवै हैं ॥ १ ॥ ॐ नै गुणको जनेऊ कांधे में डारिकै स्नान कारकै बड़ो बेदना ऐसो तिलक दैकै बैठे हैं । सो कबीरजी कूटकरै हैं कि, अव षट्कर्म वनि परचे कि, हांडीमें हाड़ है थारीमें हाड़है। मुखमें हाड़ है । व पटू कर्म ब्राह्मणके ये हैं । पर्दै पढ़ावै दान देइ लेइ यज्ञ कैरै यज्ञ करावै । इहां ये षट्कर्म केरै हैं एक हँड़िया दूजे हाड़ तीजे थारी चौथ हाड़ पांचौ मुख छठों हाड़ अब ये अब षट्कर्म बानि परयो ॥ २ ॥ धरम कथै जहँ जीव बधै तहँ अकरम कर मेरे भाई । जो तोहरेको ब्राह्मण कहिये तो केहि कहिय कसाई ॥३॥ कह कवीर सुनो हो संतो भरम भूलि दुनिआई। अपरम पार पार पुरुषोत्तम यह गति विरलै पाई ॥ ४॥ । जहां धर्मको कथैहै कि, या यज्ञहै, देवपूजन पितर श्राद्धहै याधर्म है त नीवनको मारै है। सो हे भाइउ ! जो करिबेलायक कर्म नहीं है सोङ कैरैहैं। ऐसे ने तुम्हारे कर्म हैं तिनको. तो ब्राह्मण कहेंगे ब्रह्मके जनैया कहेंगे तो कसाई काको कहेंगे ॥ ३ ॥ श्रीकबीरजी कहै हैं कि, ऐसे भ्रममें दुनियाँ भूलि रहा है । अपरमकहे परम नहीं ऐसी जो माया है ताते परब्रह्म है ताहूते पार पुरुष समष्टि जीव हैं जाके अनुभवते ब्रह्म भयो है ताहूते उत्तम श्रीरामचन्द्र हैं। काहेत कि, वे बिभु सर्वज्ञ हैं औ जीव अणु अल्पज्ञहै । ते श्रीरामचन्द्रकी जो यहगति है ज्ञान सो कोई बिरलै पाई है अर्थात् कोई बिरला जान्यौ है कि, सबते पर साहबई है । उनते सम औ अधिक कोई नहीं है । तामें प्रमाण ॥ ‘सकारणकारणकारणाधिपोनचास्यकश्चिजनितानचाधिपः । नतस्य कार्यकरपंचविद्यतेनतत्समश्चाभ्यधिकश्चदृश्यते ॥ इतिश्वेताश्वतरोपनिषदि ॥ समोनविद्यतेतस्यविशिष्टः कुतएवतु ॥ इति वाल्मीकीये । औकबीरौजीकोप्रमाण ॥ ‘‘साहब कहिये एकको दूजा कहो न जाइ । दूजा साहब ने कहैं, बाद विडंबन आइ । जनन मरणते रहितहै, मेरा साहब सोय । मैं बलिहारी पीउकी, जिन सिरना सब कोय ॥ ४ ॥ इति छियालीसवां शब्द समाप्त ।।