पृष्ठ:बीजक.djvu/३५४

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. | ३ ( ३०४) बीजक कबीरदास । अथ बावनवां शब्द ॥५२॥ | बुझि लीजै ब्रह्मज्ञानी। घोरि घोरि वर्षा वरषावै परिया बुंद न पानी ।। १ ।। चींटीके पग हस्ती बांधे छेरी वीगे खायो ।। उदधि माहिते निकसि छाँछी चौड़े गेह करायः ॥ २॥ मेढुक सर्प रहै इक संगै बिल्ली श्वान बिवाही ।। नित उठि सिंह सियारसों जूझ अद्भुत कथो न जाही।।३॥ संशय मिरगा तन वन घेरे पारथ वाना मेलै ।। सायर जरै सकल वन डाहै मच्छ अहेरा खैलै॥ ४॥ कह कवीर यह अद्भुत ज्ञाना को यहि ज्ञान बुझे । विलु पंखे उड़िजाहि अकाशै जीवहि मरण न सूझै ॥ ६ ॥ बुझि लीजै ब्रह्मज्ञानी । घोरि घरि वर्ष बरखावै परिया खुद न पानी ।। १ ।। । हे ब्रह्मज्ञानी ! आप बूझिये त बोरिवरि कहे नये नये ग्रन्थन को बाइकै कहे माया ब्रह्मजीव एकैमें मिलाइडारचे कि, एक ही ब्रह्म है । वहीं वाणी शिष्यनके श्रवण में बर्ष ऐसो बर्षावहै। परन्तु तुम्हारे बानीरूप पानी को बुंदहू न उनके परयो अर्थात् तनकऊ ज्ञान न भयो वे ब्रह्म कबहूँ न भयो सो तुम्हारो यह हवाल द्वैरह्या है ॥ १ ॥ | चींटीके पग हस्ती बांधे छेरी बीगै खायो । उदधि माहँते निकास छांछरी चौड़े गेह करायो । २॥ चींटी कहिये बुद्धिको काहेते कि, सूक्ष्म होइ है कुशःयवर्ती शास्त्रमें कहै हैं ताके पाइमें मतङ्गरूप जोमनहै ताको वांधिदियो मनबड़ाहै।औ दुइमतंह याते हाथीकह्यो। ३