पृष्ठ:बीजक.djvu/३७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

(३२२ ) बीजक कबीरदास । पुरुष साहबै है सो ने परम पुरुष श्रीरामचन्द्र को छोड़ि और पुरुष केरै हैं ते छिनारि हैं सो जो छिनारि हैं तिनके ऊपर संसार रूपी मार परोई चाहै । तामें व्यंग्य यह है कि, जे परमपुरुष श्रीरामचन्द्रको पति मानें हैं तेई माया मझामिते बचे हैं ॥ ५ ॥ इति अवनवा शब्द समाप्त । अथ उनसठवां शब्द ॥ ७९ ॥ माया महा ठगिनि हम जानी।। तिरगुण फांस लिये कर डोलै वोले मधुरी बानी ॥१॥ केशवके कमला है वैठी शिवके भवन भवानी ।। पंडाके मूति वै वैठी तीरथमें भइ पानी ॥२॥ योगीके योगिनि वै बैठी राजाके घर रानी ।। काहूके हीरा वै बैठी काहूके कौड़ी कानी ॥ ३॥ भक्तनके भक्तिनि वै बैठी ब्रह्माके ब्रह्मानी। कहै कबीर सुनो हो संतो यह सब अकथ कहानी ॥४॥ माया महा ठगिनि है हम जाना । यह माया माधुरी बानी बोलिकै त्रिगुण फांसते सब जीवनको बांधिलियो । ॐ सबके घरमें नानारूप करिकै बैठीहै; केशवके कमल वैके बैठी है, औ शिवके भवनभवानी ढुकै बैठी है, औ पेडाके मूरति है बैठी है, औ तीरथमें पानी & रही है, औ योगी घरमें योगिनि है बैठी है, औ राजाके रानी लै बैठहै, औं काहूके हीरा है बैठी है, औ काहूके कानी कड़ी ढुकै बैठी हैं, औ ब्रह्माके ब्रह्मानी हैं बैठी है। सो कबीरजी कहे हैं कि, हे संतै ! सुनो यह सब मायाको चरित्र अकथ कहानी कहाँलौं वर्णन करें यह माया सद् असते विलक्षण है कहिले लायक नहीं है अरु याको अंतनहीं है ॥ १-४ ।। इति उनसठवां शब्द समाप्त ।