पृष्ठ:बीजक.djvu/३७३

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शब्द । (३२३) | अथ साठवां शब्द ॥६० ॥ | मायामोहहिमोहितकीन्हा । तातेज्ञानरतनहरिलीन्हा ॥१॥ जीवन ऐसो सपना जैसो जीवन सपन समाना । शब्द् गुरु उपदेश दियो तै छाड्यो परम निधाना ॥२॥ | ज्योतिहि देखि पतंग हुलसे पशु नहिं पेखे आगी । | काम क्रोध नर मुगुध परे हैं कनक कामिनी लागी ॥३॥ सय्यद शेख किताबें निरखै पंडित शास्त्र विचारै ।। सद्रुके उपदेश विना तुम जानिकै जीवहि मारे ॥ ४ ॥ करौ विचार विकार परिहरौ तरन तारनै सोई ।। कहकवीर भगवंत भजन करु द्वितिया और न कोई॥६॥ मायामोहहिमोहितकीन्हा । तातेज्ञानरतन हरलीन्हा॥१॥ पूर्व जो वर्णन करिआये सो माया जीवको मोहित करत भई । सांचमें असांचकी बुद्धि होय है या मोहको लक्षण है। सो यह आत्मा तो शरीरनते भिन्न सांच है ताको शरीरकी बुद्धि भई कि, शरीर मैं हैं, मनादिक मेरे हैं। यह असांच बुद्धि भई याहीते मायामें परिगया। तव याको माया मोहते मोहित करिकै परम पुरुष पर श्रीरामचन्द्र हैं तिन को ज्ञान रतन जो हैं कि, में उनको अंशहौं, वे बड़े रतन हैं, मैं कनी अल्पज्ञ हैं परन्तु जाति उन हींकी हौं, वे बिभु आनन्द हैं जैसे उनमें मनादिक नहीं हैं तैसे में जो उनको जानौं ती महूँ मनादिक नहीं हैं। यह जीवको ज्ञान रत्न माया हरिलीन्हो ॥ १ ॥ जीवन ऐसो सपना जैसो जीवन सपन समाना । शब्द गुरु उपदेश दियो तै छड़यो परम निधाना॥२॥ यह जीवन ऐसो है स्वप्न है यहि शरीरते दूसरे शरीरमें गयो तब यह शरीर स्वप्न है गयो औ वह जीव स्वप्न जे संपूर्ण शरीर हैं जिनमें नहीं समान्ये