पृष्ठ:बीजक.djvu/३७८

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( ३३०) बीजक कबीरदास । अथ तिरसठवां शब्द ॥ ६३ ॥ मैं कासों कहौं को सुनै को पतिआय । फुलवाके छुवत भेर मारजाय ॥ १ ॥ गगन मॅडल विच फुल यक फूला । तर भो डार उपर भी मूला ॥ ३॥ जोतिये न बोइये सिचिये न सोइ । विन डार विना पात फूल यूक होइ ॥३॥ फुल भल फुलल मालिनि भल गूथल । फुलवा विनाश गयल भवंर निरासल॥४॥ कह कबीर सुनो संतो भाई । पंडित जन फुल रहे लुभाई ॥ ६ ॥ मैंकासों कहाँको सुनै को पतिआय । फुलके छुवत भंवर मरजाय ॥ १ ॥ कबीरजी कहे हैं कि, मैं जासों कहाँ हौं सो तो सुनतई नहीं है औ नो सुन्यो। तौ शंका कियो ताको समाधान करिदियो असाच निकारिडारयो सांचेको स्थापित कियो सो यद्यपि वाको जवाब नहीं चलै है तौ यह कहै है कि, यह जोलहाको कह्यो वेद शास्त्र को सार अर्थ विचार कैसे होइगो ताते कोई मोको पतिआये नहीं है येतो सव धोखामें अटके हैं मैं कासों कह को सुने । कौन बात कहा हौं कि, वह धोखा ब्रह्म आकाशको फूल है ताके छुवतमें भर जॉहै तिहारों जीवात्मा सो मारनाय हैं कहे तुम नहीं रहिजाउहौ, वहीं धोखा ब्रह्मई रहिजाइहै वाके आगेकी बात तुमकैसे जानौगे याते तुम परमपुरुष परश्रीरामचदको जाना । वे जब अपनी इंद्री देईंगे तब वह ब्रह्मके ऊपरकी बात जानि परैगी । जौन हंसशरीर देइहै सो याके नित्य स्वरूपहै सो नित्य स्वरूप