पृष्ठ:बीजक.djvu/३९०

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बीजक कबीरदास्य।

जीवको ब्याही माया जो होइलै सो मनते होइहै सो मन ससुर भयो अरु शुद्धते अशुद्धभय से अशुद्ध जीवको बाप शुद्ध जीव ठहरयों सोई समधी ठहरयो तौने जीवके घर में लमधी जो है मन को भाईचित्त सो आये नाना स्मरण देवायो तवहूं जो माया है ताकी भाई काल आयो । चूल्हा जो है तामें दुई पल्ला होइहैं सो पुण्य पाप हैं ते दुनों पल्लाहैं तौने चूडामें गोड़ देकै चरखा जो शरीर है तिनको इटाइदीन्ह्यो कहे लाइदियो काहूको पुण्य करायकै काहू को पार करायकै शरीर खाइलीन्ह्या ॥ ४ ॥ देवलोक मर जाहिंगे एक न मरै वढ़ाय। यह मन रंजन करने चरवा दियो दृढ़ाय ॥ ६॥ कह कवीर संतो सुनौ चरखा लखै न कोइ । जाको चरखा लस्व परो अवा गवन न होइ ।। ६।। देवलोक के नरलोक को सबको काल खाइलेइहै यह बढ़या जो मनहै सोनहीं मारे मरै हैं है जब वह बल्ला है त बँदेही बनाइ देइहै ऐसे वह बढ़ई जो मन सो कालके रंजन करिबे को शरीर रूपी चरखा को दृढ़ करत जाईंह नाना शरीर कालको अवात जाय है ।। ५ ।। श्रीकबीरजी कहै हैं कि, चरखा जे चा; शरीर तिनको कोई नहीं ललै है जाको चारों शरीर लुखिपरे अरु पांचौशरीर कैवल्य में प्राप्त भयो कहे केवल चितमात्र रहिगयो तब वह चरखाको गठै जो मनहै तेहिते जीव भिन्न द्वैगयो तब अठवौ अंश स्वरूप साहब देईहै तामें स्थित हैकै साहबके लोकको जाइहैं। आवा गमन नहीं होइ है ॥ ६ ॥ इनि रसवां शब्द समाप्त ।। | अथ उनहत्तरवां शब्द ॥ ६९ ॥ | यंत्री यंत्र अनूपम वाजे । वाके अष्ट गगन मुख गाजै ॥१॥ ही माजे तूही बाजै तुही लिये कर डोलै ।