पृष्ठ:बीजक.djvu/४०७

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शब्द । कि रामानंद ने तेई राम के रस में छके हैं अरु तेई परमपुरुषपर श्रीरामचंद्रके धामको गये हैं और कोई नहीं परम मुक्ति पाई है तुमडू रामानंद होतजाउ अर्थात् तुमहूं रामहींते आनंद मानतजाउ यह हम चारोंयुग में सबको समुझःयो परंतु कोई हमारो को न मान्यो राममें अनंद काई न मन्ये व वही माया ब्रह्ममें लगिकै संसारी होतभयो ।। ४ ।। | इति सतहत्तरवां शब्द समान । -- अथ अठहत्तरवां शब्द ।। ७८ } अव हम जाना हो हरि वाजीक खेल। डंक वजाय देखाय तमाशा बहुरि सो लेत सकेल ।। ३ ।। हरि बाजी सुर नर मुनि जहँडे माया चेटक लाया । घरमें डारि सवन भरमाया हृदया ज्ञान न आया ।। ३ ।। वाजी झूठ बाजीगर सांचा साधुनकी मति ऐसी । कह कवीर जिन जैसी समुझी ताकी गति भइ तैसी ।। ३ ।। • अब हम जाना हो हरि बाजी को खेल । डंक वजाय देवाय तमाशा वहरि सो ले सकेल। १ ।। हेहरि ! हे साहब ! संसाररूप बाजीके खेलको हेतु अब हम जान्या । अब जों कह्यो तामें धुनि यहहैं कि, तब यह विचारत रहे कि साहब तो दयालुदै शुद्धजीवको संसार रचि अशुद्ध काहे करिदिये यह शंका रह। सो अब जब छूटी तब साहबको हेतु जान्यो साहब जो सुरति दियो सो आपनेपास दिवाय सुखलिये डङ्का बजाय कहे रामनाम शब्द सुनायकै तमाशा देखाय कहे जगत् मुख अर्थ दार संसार तमाशा देखायकै बहुरि सो लेत सकेल कहे जे कोई जीव साहब के सम्मुख भयो ताको साहब मुख अर्थ बताइकै चित भचितरूप विग्रह जगत् खायकै संसार सकेलि लेय है अर्थात् संसार देखि नहीं परै ॥ १ ॥