पृष्ठ:बीजक.djvu/४२०

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| बीजक कबीरदास । फेरा न कियो कहें यह शरीर में नहीं पावैहै सो बीबी जो है साहबकी दुई सुरति सो बाहर है कहे संसार मुख हैं रही है औ हरम कहे लौंडी जो है माया सो महलमें है कहै सब शरीरन में है ताके बीचमें मियां जो है जीव ताको डेराहै। ताको वह माया घेरे है ॥ ३ ॥ • नौमन सूत अरुझि नहिं सुरझै जन्म जन्म अरु झेरा। कहै कबीर सुनो हो संतौ यहि पद करो निबेरा ॥४॥ सो नौमन कहे नित्यही नवीन जौ मनहै अर्थात् मनके दिये नाना शरीर होय सो नाना कर्म नाना मत जे सूत। तिनमें अरुझिकै सुरझै नहीं है सो । कबीरजी कहें कि हे संतौ!यह पद को निबेरा करो कहे पांचौं शरीरमें अरुझों नी है मन ताते भिन्नहोउ तौ तुम शरीरनते भिन्न हैजाउ ॥ ४ ॥ इति पचासीवां शब्द समाप्त । अथ छियासीवां शब्द ॥ ६ ॥ कबिरा तेरो घर कँदलामें या जग रहत भुलाना । गुरुकी कही करत नहिं कोई अमल महल देवाना ॥ १॥ सकल ब्रह्ममें हंस कबीरा कागनचच पसारा। मन मत कर्म धरै सव देही नाद बिंदु विस्तारा ॥२॥ सकल कबीरा बोलै बानी पानीमों घर छाया। लूट अनंत होत घट भीतर घटका मर्म न पाया ॥ ३॥ कामिनि रूपी सकल कवीरा मृगा चरिंदा होई। वड़ वड़ ज्ञानी मुनिवर थाके पकरि सके नहिं कोई॥४॥ ब्रह्मा वरुण कुबेर पुरंदर पीपा प्रहलद चाखा । हिरणाकुश नख उदर विदारा तिनहुँक काल न राखा॥६॥