पृष्ठ:बीजक.djvu/४३९

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- शब्द। ( ३९१ ) अथ चौरानबे शब्द ॥ ९४ ॥ कहौ निरंजन कवनी बानी । | हाथ पांव सुख श्रवण न जिह्वा को कहि जपहु हो प्रानी॥१॥ ज्योतिहि ज्योतिज्योति जो कहिये ज्योति कौनसहिदानी ।। ज्योतिहि ज्योति ज्योति दैमार तब कहँ ज्योति समानी २॥ चारिवेद ब्रह्मा निज कहिया तिनहुं न यागति जानी । कहै कबीर सुनो हो संतो बूझडु पंडित ज्ञानी ॥ ३ ॥३ जो कहौ मनहीं ते यह संसार है औ जब मनते छूटैगो तब ब्रह्मही छैन। गो ताने श्री कबीरजी कहै हैं ॥ कहौ निरंजन कवनी बानी ।। हाथ पांय मुख श्रवण नजिह्वा काकहि जपहु हो प्रानी।। ३ ।। ज्योतिहि ज्योति ज्योति जो कहिये ज्योति कौन सहिदानी। ज्योतिहि ज्योति ज्योति दैमारै तब वह ज्योति समानी।।२।। कहौतौ निरंजन ब्रह्मको कौनी बाणीते कहीही वाको तौ मन बचनके प कहीही तामें प्रमाण ।।‘यतो वाचो निवर्तते अप्राप्य मनसा सह ।।इति श्रुतेः ।। अरु वाक तो बिना नाम रूप को कहौ हौ वाको कैसे जपौहौ औ कैसे ध्यान करौ।।। १।।जो कहा वह प्रकाशरूप ब्रह्म है सो प्रकाशको ध्यान करें हैं प्रकाश में अपने आत्माको मिलाइ देइहैं ब्रह्म हमहीं हैं जाइहैं सो ज्योतिस्वरूप जो ब्रह्महै। तामें आपने आत्माकी ज्योति ज्योतिकै कहे मिलाइकै जो कहिये वह ज्योति केन साहिदानी रहिजाईहै अर्थात् जब सब पदार्थ मिथ्या मानत मानत एक प्रकाशरूप ब्रह्ममान्य ताको मान्यो कि वहि ब्रह्म हमहीं ब्रह्म हैं सो जब :भर यह माने रह्यो कि वह ब्रह्म हमहीं हैं तभर तो तिहारो अनुभव हैहै औ जब अनुभव मिटिगयो तब तुमहीं रहिनाउहौ तब वह ब्रह्मकी कौन सहिदानी हिजाई है अर्थात कछु नहीं रहजाय है तुमहीं रहि जाउ हौ यही प्रकार जब ब्रह्मज्योति