पृष्ठ:बीजक.djvu/४६

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                       रमैनी ।
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संभव भई, महाकाश सो शेष १९॥ साक्षी ॥ झांईसंभवबुद्धि ले, करीकल्पना अनेक ॥ सोपरकाशक जानिये, ईश्वरसाक्षी एक ॥ साक्षी ॥ विषमभईशंकल्प जब, तदाकारसोरूप ॥ महा अंधरीकालसो, परेअविद्या कूप ॥ साक्षी ॥ महातत्व त्रीगुणपाँच तत्व, समष्ठि “ष्ठि परमान ॥ दोय प्रकार होयप्र: गटे, 'खंड अखंडसोजान ॥ २२ ॥ रमैनी ॥ सदा अस्तिभा से निजभास ॥ सौईकहियेपरम प्रकाश ॥ परमप्रकाशले झाँई होय ॥ महदअकाश होयबरते सोय॥बरतेवर्त मानपरचंड। भसिक तुरियातीतअखंड ॥ कालसंधिहोये उश्वास ॥ आगे पीछे अनवनि भास ॥ विविधि भावना कल्पित रूप ॥ परकाशी सोसाक्षि अनूप ॥ शून्य अज्ञान सुषुप्तिहोय ॥ अकुलाहट ते नादै सोय ॥ (शून्य ज्ञान सुषुप्ती होय ॥ अकुलाहटस नादी सोय ) ॥ नादवेद अकर्षण जान ॥ तेजनर प्रगटे तेहिआन ॥ पानी पवन गांठि परिजाय ॥ देही देह धरे जग आय ॥ से कौआर शब्द परचंड ॥ बहुव्यवहार खण्डब्रह्मण्ड ॥ साक्षी ॥ जतन भये निज अर्थ को, जेहि छूटे दुख भूरि॥ धूर परी जब आंखमें, सूझे किमि निजमूर ॥ २३ ॥ रमैनी ॥ पांजी परख जबै फरिआवै ॥ तुरतहि सबै विकार नशावै ॥ शब्द सुधारि के रहे अकरम ॥ स्वाती भक्ति के खोटे भरम ॥ काल जाल जो लखि नहिं आवै ॥ तौल निजपद नहीं पावै ॥ झांई संधि काल पहिचान ॥ शार शब्द बिलु गुरु नहिजान ॥ परखे रूप अवस्था जाए ॥ आन विचार न ताहि समाए॥ ॐई संधिशब्दले परखे जोय॥संशयवाकेरहै न कोय॥

१९७ समूह जैसे बन ॥ ११३ एक जैसे एक वृक्ष ॥ ११९ अंस ॥ १२० पूर्ण ॥ १२१ सत्य ॥ १२२ अध्यास का कराने वाला ॥ १२३ देर समूह ॥ १२४ वेदति ॥