पृष्ठ:बीजक.djvu/४६०

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रकारकै न भलितकी जब आ भक्ति जब स { ४१२) बीजक कबीरदास । रूपा भक्ति मोको न होत भई केवल ज्ञानै कारकै रामनामक रटनि लुगाईकै चिरत भयो कि, मिलिही जायँगे तब हे प्राणनाथ! भरी कहा गति होत भई सों कहौहौं ॥ ३ ॥ हम तुम्हारे शरण तो चलिगये कहे तुम्हारे नाम में रट लगावत भयो पै तुम्हारे चरणन को न देखत भयो अर्थात् दर्शन न पायों }} ४ ॥ सो हे भगवन्! षट् ऐश्वर्य संपन्न धैं हमही कुसेवक रहे जो तिहारों इरशन न पायो धौं तुमही अयान रहे हमको न जानत रहे जो हम को नहीं मिले दुइमें काको दोष है ॥ ५ ॥ अव दास कबीर जो मैंह ताको भली भांतिते जइ निराश करिदियो कि, कौनिउ भांतिकी जब आश न रहिगई न ज्ञान कारकै नै योग करिकै न भक्ति करिकै केवल सुधारसरूपा निर्गुणा भक्ति जब मोको दियो तब हम तुम्हारे पास चलि आये याते कबीरजी या देखायो कि, जब सब बातते निराश है नाम हैं तब साहब के पास जाइहैं।।६।। इति एकसै आठ शब्द समाप्त । अथ एकसै नव शब्द ॥ १०९ ॥ लोग बोलै दुरिगये कवी या मत कोइ कोई जानें थीर॥१३॥ दशरथ सुत तिहुँ लोकहि जाना। राम नामको म मैं आना २ जेहि जिय जानि परा जस लेखारिजु को कहै उरगजोपेखा३ यद्यपिफल उत्तमगुणजानाहारहत्यागमनमुक्तिनमाना४ हरि अधार जस मीनहिं नीरा औरयतनकछुकहहिंकबीरा लोग बोले दुरि गये कबीरा । या मत कोइ कोइ जानें धीरा। श्री कबीरजी कहै हैं कि, सब लोग बोले हैं कि, कबीर बहुत दूर गयें बहुत पहुंचे हैं सो या मत कोई जे धीरे धीरे सावन में क्रियतमें समुझनमें अभ्यास करै हैं सो जाने हैं कौन मत सो आगे कहै हैं ।। १ ।। दशरथ सुत तिहुँ लोकहि जानाराम नामको ममैं आना२॥ ।