पृष्ठ:बीजक.djvu/४७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

चौंतीसी । (४२३ ) तता अति त्रियो नहिं जाई । तन त्रिभुवनमें राखु छपाई ॥ जो तन त्रिभुवनमाहँछपावै।तत्त्वहिमिलिसोतत्त्वजोपावै१६ थथा थाह थहो नहिं जाई । यह थीरे वह थीर रहाई ॥ थोरे थोर थिरहो भाई। विन थंभेजस मन्दिर जाई ॥१७॥ | ददा देखौ बिनशन हारा । जस देखौ तस करौ विचारा ॥ | दशौ द्वारमें तारी लावै । तव दयालको दर्शन पावै॥१८॥ | धधा अर्ध माई अँधियारी । जस देखे तस करै विचारी ॥ | अधो छोड़ि ऊरधमन लावै।अपा मेटि के प्रेम बढ़ावै॥१९॥ | नना वो चौथमें जाई । रामका गद्दह खै खरखाई ॥ | नाह छोड़ किय नरक बसेरा।अजौं मूढ़ चित चेतु सवेरा२० | पपा पाप करै सब कोई । पापके धरे धर्म नहिं होई ।। | पपा कहै सुनैरे भाई । हमरेसे ये कछू न पाई ॥ २१ ॥ फफा फल लागो बड़े दूरी । चाखै सतगुरु देव न तूरी ॥ फफा कहै सुनौ रे भाई । स्वर्ग पताल कि खबर न पाई२२ बवा बर वर कर सव कोई।बर वर किये काज नहिं होई ॥ बबा बात कहै अरथाई।फलका मर्म न जानेहु भाई ॥२३॥ भभा भर्म रहा भरि पूरी । भुभरेते है नियरे दूरी ॥ भभा कहै सुनौरे भाई । भभरे आवै भभरे जाई ॥ २४ ॥ ममा सेये मर्म न पाई । हमरे ते इन मूल गवाँई ॥ ममा मूल गहल मन मानामिर्मी होहि सो मर्महि जाना॥२९ यया जगत रहा भरि पूरी । जगतहु ते ययाहै दूरी ॥ यया कहै सुनौरे भाई । हमरे सेये जै जै पाई ॥ २६ ॥