पृष्ठ:बीजक.djvu/४८१

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चौंतीसी । (४३३) बस्तु नहीं है परन्तु काहू के थहाये नहीं थहाय जायेहै । शिलासमूह मनहै सो आगेपदमें कहिये हैं ॥ ‘पाहनफोरि गंगयकनिकसी चहुँदिशि पानीपानी । सो यह मनथिर होइ तो वह जीवहू थिररहै । ताते हैं थोरे थोर साधन करु जाते मन थिर होइ । जो साधन न करैगो तौ मन न थिर रहेंगो कैसे ? जैसे बिना थंभकहे खंभा देवा और जो कौन यशैवाली बात न करै तौवह यश बने रहते है ? मन्दिरभै है ? अर्थात् नहींथभै है । अथवा थोरे थोरे साधनकार मन थिर कैले जब मन थिर है जाइगो तत्र साधन न करन परैगो। कैसे जैसे कौनौ यशवाली बातकियो फिर वा यश रूप मंदिर बिना थम्भै बनारहै है । थ शिलासमूहको औ रक्षाकोकहे हैं तामें प्रमाण ॥ "शिलो। चुये थैकारस्स्यात्थकारोभयरक्षणे ॥ १८ ॥ ददा देखो विनशनहारा । जस देखौ तस करौ बिचारा ॥ दशौ द्वारमें तारी लावै । तब दुयालको दर्शन पावै ॥१९॥ द कहिये कलत्रको दा कहिये दानको। सो हेजीव! या सबकहे यहलोकमें जो कलत्रादि औ वह्लाक स्वर्गादिक बिनशनहारा है अर्थात् सब नाशमानहै । सो जस देखो कहे जैसा नाशवान् देखते ही तैसा तुहूं आपने को बिचारकरों कि, हमहूं नाश है जै हैं । दशै द्वारको महा मुद्रा करि बंदकर ताली लावै कहे समाधिकरै तबदयालु जे साहब तिनको दर्शन रौं पवैगो । द कलत्रको औ दान को कहै हैं तामें प्रमाण॥"दे:कलत्रे बुधैरुक्तो छेदेदानेपि दातरि॥१९॥ धधा अधे माह अँधियारी । जस देखे तस करै विचारी ॥ अधौ छोड़ि उग्ध मनलावै। अपामेटिक प्रेम बढ़ावै॥२०॥ ध कहिये बंधनको औ धा कहिये धाताको । सोहेजीव ! मायाके बंधनमें परिकै अपनेको धाताकहे ब्रह्मा मानिलियो है। सो हेजीव ! तें अधः कहे अधोगतिकी अंधियारीमें परो है । तोकोनहीं सूझिपरै अज्ञानमें परो है । सो जल. हेखैहै सुनै है तैसही बिचार अज्ञान पूर्वक करैहै सो रौं न करु अधो नो है अधे १-‘थ' पर्वत और सङ्कटसे बचाने को कहते हैं । २-द’ स्त्री, काटना, देना और दानकरनेवालेको कहते हैं । | २८