पृष्ठ:बीजक.djvu/४९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

अथ कहरा प्रारभ्यते ।


कहरा पहिला ॥ १ ॥ सहज ध्यान रहु सहज ध्यान रहु गुरुके वचन सुमाई हो । मेली सिष्ट चराचित राखो रहो दृष्टि लोलाई हो ॥ १॥ जो खुटकार बेगि नाहं लागो हृदय निवारहु कोहू हो। मुक्तिकी डोरि गांठ जनि बैंचो तव वाझी बड़रोहू हो॥२॥ मनुवो कहौ रहै मन मारे खीझको खीझ न बोलै हो । मनुवा मीत मिताइ न छोड़े कवहूं गांठ न खोलै हो ॥३॥ भूल भोग मुक्ति जनि भूली योगयुक्ति तन साधो हो। जो यहि भांति करहु भतवारी तो मतके चित बांधो हो॥४॥ नाहिं तौ ठाकुर है अति दारुण करिहै चालु कुचाली हो । बांधि मारि डारि सब लेहै छूटी सव मतवाली हो ॥६॥ जवहीं सामत आइ पहूंचे पीठि सांट भल टूटैहो । ठाढ़े लोग कुटुम्ब सव देखै कहे काहु किन छूटैहो ॥६॥ एक तो अनिष्ट पाउँ परि विनवै विनती किये न मानै हो । अन चिन्ह रहे कियो नचिन्हारी सो कैसे पहिचानै हो॥७॥ लेइ बोलाय बात नहिं पूछै केवट गर्भ तन बोलै हो । जेकार गठि सबल कछु नाहीं निराधार & डोलै हो॥८॥