पृष्ठ:बीजक.djvu/४९६

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(४४८) बीजक कबीरदास । जिन्ह सम युक्ति अगमनकै राखिन घरणिमांझधरडेहरिहो। जेकरे हाथ पाउँ कछु नाहीं धरण लाग तनसे हरि हो॥९॥ पेलना अक्षत पेलि चलु बौरे तीर तीर कह टोवहु हो । उथले रहौ परो जनि गहिरे मति हाथै कै खोवहु हो ॥१०॥ तर कै घाम उपरकै भूभुरि छांह कतहुं नहि पावडु हो । ऐसो जानि पसीजहु सीजहु कस न छतरिया छावहु हो११ जो कछु खेल कियो सो कीयो वहुरि खेल कस होई हो। सासु ननँद दोउ देत उलाटन रडु लाज मुख गोई हो१२॥ गुरु भो ढील गोन भो लचपच कहा न मानेहु मोरा हो । ताजी तुरुकी कबहुं न साजेहु चढ्यो काठके वोराहो॥१३॥ ताल झांझ भल वाजत आवै कहरा सब कोइ नाचै हो । जेहि सँग दुलहा ब्याहन आये तेहि रँग दुलहिन राचै हो१४ नौका अछत खेवै नहिं जान्यो कैसे लागहु तीरा हो । कहै कबीर राम रस माते जोलहा दास कबीरा हो ॥१५॥ सहज ध्यान रहु सहज ध्यान रहु गुरुके बचन समाई हो । मेली सिष्ट चराचित राखौ रहौ दृष्टि लौ लाई हो ॥१॥ .. श्रीकबीरजी कहै हैं कि, हे जीव ! हैं गुरुके बचनमें समाइकै सहज ध्यान तें करुगुरुके बचन जो आगे लिखि आये हैं कि, सुरति कमलमें गुरु बैठे रकार मकार जपे हैं तामें समाई जाइ । अर्थात् दलदलमें बाढिकै इक्कीस हजार छासै श्वास ने चलै हैं तिनमें तेतने राम नाम जपै । कौनी रीतिते जयै तामें प्रमाण श्री कबीरजी को पद ।।