पृष्ठ:बीजक.djvu/५१७

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कहरा । ( ४७१) अथ सातवां कहरा ॥ ७ ॥ रहहु सँभारे राम विचारे कहत अहो जो पुकारेहो ॥ १ ॥ मूड़ मुड़ाय फूलिकै बैठे मुद्रा पहिरि मैजूसाहो । ताहि ऊपर कछु छार लपेटे भितर भितर घर मूसाहो॥२॥ गाउँ वसतहै गर्व भारती माम काम हंकाराहो । मोहिनि जहां तहां ले जैहै नहिं पति रहे तुम्हारा हो ॥३॥ मांझ मॅझरिया बसै जो जानै जन हैहै सोथीराहो । निर्भय गुरु कि नगरिया तहँवां सुख सोवै दास कबीरा हो। रहहु सँभारे राम विचारे कहत अहौ जो पुकारे हो॥१॥ सूड़ मुड़ाय फूलिकै बैठे मुद्रा पहिरि मॅजूसा हो । ताहि उपर कछु छार लपेटे भितर भितर घर मूसाहो२॥ श्री कबीरजी कैहै हैं कि पुकारे कहौ हौं कि श्री रामनाम को बिचारत हे जीवौ!यह मनको सँभारे रहौ अनत न जान पावै मैं पुकारे कहौह अनत जायगे। तौ मारो जायगो ॥ १ ॥ ऊपरते मूड़ मुड़ायकै कानेमें मुद्रा पहिरिकै अंगमें छार लपेटिकै मंजूसा कहे गुफा में बैठे औ प्राण चढ़ाईंकै मानन लगे कि हमहीं ब्रह्म हैं सो ऊपरते तो बहुत रंग कियो पै भीतर भीतर उनको घर मुसि गयो कहे साहबको भूलिगये ॥ २ ॥ गाउँ वसतहै गर्व भारती माम काम हंकारा हो । मोहिनि जहां तहां लैजैहै नहिं पति रहै तुम्हारा हो॥३॥ यह शरीररूपी जो गाउँ है तामें गर्बको जो भाराहे सो थिर भयो कहे यह मान्यो कि यह शरीर मेरोहै तब माम जो है ममता औ कामादिक जे हैं अहंकार तेहिते भर गयो से श्री कबीरजी कहै हैं कि मोहनि जो है मोहि ले