पृष्ठ:बीजक.djvu/५२४

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| (४७८) बीजक कबीरदास । | ते वही अपने स्वरूपको खोजैहैं सो किछु किछु कहे थोरहूते थोर जीव पाइनहै और कोई नहीं पायो जे आपनो रूप मेरो रूप गुरुप्रताप जानि शरीरको बिनैया मनको त्याग्यो है तेई पायो है अथवा किछु किछु कबिरन पाई कहे साकल्य करिकै हमारो भेद तो कोई जानतही नहीं है जे अपनो रूप मेरोरूप जानत जे जीवं ते किछु किछु भेद पायो है ॥ ६ ॥ इति दशवां कहरा समाप्त ।। अथ ग्यारहवां कहरा ॥११॥ ननँदी गे तै विषम सोहागिनि तें निदले संसारागे । आवत देखि एक सँग सूती ते अरु रखसम हमारागे ॥१॥ मोरे बापकि दोय मेहरिया में अरु मोर जेठानीगे । | जब हम ऐलि रसिकके जगमें तवहिं बात जग जानीगे २ माई मोर सुवल पिताके संगहि सर रचि सुवल संघातागे। अपनो सुई और ले सुवली लोग कुटुम्ब सँग साथागे ॥३॥ जौ लौं सांस रहै घट भीतर तो लग कुशल परे हैगे। कह कबीर जब श्वास निसारंगै मंदिर अनल जरैदेगे ॥४॥ | कबीर जी जीवनपर दया कैकै ज्ञान शक्तिते कहै हैं कि, मगहमें मिथिला देशमें परस्पर स्त्री लोग बतातीहैं आदर कैकै तब गे संबोधन देती हैं सो या पदमें गे संबोधन अथवा गे बिगरे जीवको कहै हैं, हे गये जीवसो कबीरजी जीवन चित् शक्ति साहबकी स्त्री सो ज्ञानशक्ति जो साहबकी बहिनी तासों कहै हैं हँदी याते कहै हैं कि प्रथम साहबको ज्ञान प्रगट होय है पीछे साहब प्रगट होयहै से साहबकी बहिनी भई सो चित् शाक्त जीव कहै हैं कि मैं हमते सब जीव है तिन पर हैं विषम ६ गई औ पतिकी सोहागिनि वैगई कैसीहै हैं कि निदले संसारा कहे हैं तो संसारको