पृष्ठ:बीजक.djvu/५२९

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बसंत । तेहि ठाऊं । संशय रहित अमरपुर गाऊं ॥ जवां रोग शोक नहिं होई । सदा अनन्द करै सब कोई ॥ चन्द्र सुर्य दिवस नहिं राती । वरण भेद नहिं जाति अजाती ॥ तहँवां जरा मरण नहिं होई । क्रीड़ा बिनोद करै सब कोई ॥ पुहुप विमान सदा उजियारा । अमृत भोजन करै अहारा ॥ काया सुन्दरको परवाना । उदित भये जिमि षोड़श भाना ॥ येता एक हँस उजियारा । शोभित चिकुर उदय जनु तारा । बिमल बास जहँवां पौढ़ाही । योजन चार भ्रान जो जाही ॥ श्वेत मनोहर छत्र शिर छाजा । बुझि न परै रंक अरु राजा ॥ नहिं तहँ नरक स्वर्गकी खानी । अमृत बचन बोलै भल बानी ॥ अस सुख हमरे घन महँ, कहैं कबीर बुझाय । सत्य शब्दको नानै, सो अस्थिर बैठे आय ॥ ६ ॥ ७ ॥ इति पहिला बसन्त समाप्त । अथ दूसरा बसंत ॥ २॥ रसनापढिभूलेश्रीवसंत । पुनिजाइपरिहौतुमयमकेअंत॥१॥ जोमेरुदण्डपरडंकदीन्ह । सोअष्टकमलपरजारिलीन्ह॥२॥ तबब्रह्मअग्निकीन्होप्रकास । तहँअद्धऊध्र्ववहतीबतास॥३॥ तहँनवनारीपरिमलसोगावॅमिलिसखीपांचतहँदेखनजायँ? जाँअनहदवाजाहलपूर । तहँ पुरुष वहत्तरि खेलें धूर ॥६॥ | तैंमायादेखिकसरहासभूलि । जसवनस्पतीबनरहलफूलि६ | यहकहकवीरयेहरिकेदास । फगुवामांगैवैकुंठवास ॥ ७ ॥ रसना पढ़ि भूल श्रीवंसतापुनि जाइ परिहो तुम यमके अंत | श्रीबसंत कहे ऐश्वर्यरूप जो बसंत ताको रसना में पढ्कैि मन बचनके परे जो साहबके लोकको बसंत ताकी तुम भूल गयो । रसनामें पढ़ि जो कह्य