पृष्ठ:बीजक.djvu/५६३

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बिरहुली । (५१९) | ते फूल कहे तैन जो धोखा ब्रह्म सो भक्तनको बन्दै है अर्थात् खुल नहीं है वै धोखा में नहीं पैरै है काहेते वाको बांधिकै कहे खण्डन करिकै राउर जो साहबको महल है तहांको जाहि हैं औ जे सन्त धोखा ब्रह्म रूप फूल लेहि हैं। अर्थात् ब्रह्म विचारमें जे शांत भे साहवको भूलिगे ते बेतल कहे बेताल भुतहा सांप ऐसो ने घाखा ब्रह्म तीनेते डसिगे । धुनि या है जाको सांप डसै है ताका स्वरूप भूल जाइ है सांपै बोलै है ऐसे जे धोखा ब्रह्मवारे हैं इतनहूँ आपनास्वरूप भूलिगये कहै हैं हमही ब्रह्म हैं ॥ ८ ॥ ९ ॥ विषहरमंत्रनमानबिरहुलीगाडरिबोलेआरबिरहुली ॥१०॥ विषकीक्यारीवोयोजिरहुलीअवलोरतपछितायाबरहुला ११ | जाको ब्रह्मरूप सर्प डस्यो सो ब्रह्मरूप सर्पको विषहरनवारी जो रामनाम ताको नहीं मानै है । गाडार जे हैं ते आर बोले हैं झारै हैं । इहाँ सतगुरु जे ते रामनाम उपदेश करै हैं परंतु नहीं मानै हैं सो बिषयकी कियारी जो या संसार तामें आत्मज्ञानरूप बीज बोयो सो वा बिर हुढी कहे मायैआय सो अवलोरत कहे काटतमें का पछिताय है। अबका विषम छोड़े है ! नहीं छोड़े है । कहूं ब्रह्मानंदेकी कहूं विषयानन्दकी चाह । विद्यामें ब्रह्मानन्दकी चाह अविद्यामें विषयानन्दकी चाह तोको नहीं छडै है ॥ १० ॥ ११ ॥ जन्मजन्मअवतरेउविरहुली ।फलयककनयलडारबिरहुली १२ कहकवीरसचुपायबिरहुलीजोफलचाखहुमोरबिरहुली १३ सो हे जीव बिरहुली जो माया ताहीमें तुम जन्मजन्म अवतरयो । जौने बिरहुलीको फल धोखाब्रह्म । औ वह कर्मफल कैसा है कि, कनयल कैसे फल है अर्थात् निरसहै रस नहीं है औबिषधरहै सो कौनोतरहते सचुपावोगे । से श्रीकबीरजी कहै हैं कि, तब सचुको पावै जब फल मोर चाखै कहे जीने रामनाममें मैं जपौ हौं ताही फळको चाखै तो सुचित्तई पावै या कनयल का फल न चाखै ॥ १२ ॥ १३ ॥ इति बिरहुली समाप्त ।