पृष्ठ:बीजक.djvu/५७२

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| (५२८) धजक कबीरदास । और अहै ऋग्वेद बतायू अर्द्ध शुन्नि संचारा । सत्यलोक विषयका अभिमानी विषयानंद हंकारा ॥ आदि अंत औ मध्य शब्द या लखै कोई बुधवारी । कहै कबीर सुनो हो संतो इति स्थूल शरीरा ॥ १ ॥ संतौ सुक्षम देह प्रमाना । सूक्षम देह अंगुष्ठ बराबर स्वप्न अवस्था जाना ॥ श्वेत बर्ण कार मानुका सतोगुण विष्णू देवा । ऊध्र्व सुन्न औ यजुर्वेद है कण्ठ स्थान अहेवा ॥ मुक्ति सामीप लोक बैकुण्ठं पालन किरिया राखी । मार्ग बिहंग भूचरी मुद्रा अक्षर निर्णय भाखी ॥ आव तत्त्व को हं हंकारा मंदाग्नी कहिये । पेच प्राण द्वितीया पद गोइत्री मध्यम बाणी लहिये ॥ शब्द स्पर्श रूप रस गंध मन बुद्धि चित होकारा । कहै कबीर सुनौ भाइ संतौ यह तन सूक्षम सारा ॥ २ ॥ संतौ कारण देह सरेखा ।। आधा पर्व प्रमाण तमोगुण का बर्ण परेखा ॥ मध्य शून्य मकार मात्रुका हृदया सो अस्थाना । महाकाश चाचरी मुद्रा इच्छा शक्ती जाना ॥ उदरा अग्नि सुषुप्ति अवस्था निर्णय कंठ स्थानी । कपि मारग तृतीय पद गाइजी अहै प्राज्ञ अभिमानी । सामवेद पश्यन्ती बाचा मुक्त स्वरूप बखानी । तेज तत्त्व अद्वैतानन्दं अहंकार निरबानी ॥ अहैं बिशुद्ध महातम जामें तामें कछु न समाई । कारण देह इती सम्पूरण कहै कबीर बुझाई ॥ ३ ॥ सन्तौ महकारण तन जाना । नील बरण औ ईश्वर देवा है मसूर परमाना । नाभि स्थान बिकार मात्रुका चिदाकाश परवानी ।