पृष्ठ:बीजक.djvu/६०४

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बीजक कबीरदास । आये हैं अथवा नानारंगकी जामें तरङ्ग उठतीं हैं ऐसा जो मकरन्द पुष्परस कहावै है सो महुवाके फूलको रस मदिरा समुद्र मनसो अमूझकहे अपारहै। वारपार नहीं सूझिपरै है सो कहा ते मनरूपी मद भरयो है सो आपनी अकिलते कहे बुद्धित बह कलाल कहे कलार को तो बूझ ॥ ९३ ॥ | बाजीगरका बंदुरा, ऐसा जिउ मन साथ ॥ नाना नाच नचायकै, राखै अपने हाथ॥ ९४॥ ये मन चंचल चोर ई, ई मन शुद्ध ठहार॥ | मनकार सुर मुनि जहाड़या, मनके लक्ष दुवा॥ ९६॥ ये दूनों साखिनको अर्थ स्पष्टई है ॥ ९४ ॥ ९५ ॥ विरह भुवंगम तन डसा, मन्त्र न मानै कोइ ॥ राम वियोगी ना जियै जियै सो बाउर होइ॥९६॥ विरह भुवङ्गम कहे जिनको साहबकी अप्राप्तिहै तिन जीवनको अज्ञान भुवङ्गम इस्यो है ताते ज्ञान भक्ति वैराग्य योग ये मंत्र नहीं माने हैं काहेते कि जिनमें साहबको ज्ञान नहीं है हैं भाक्त वैराग्य ते विमुख है । सो कबीरजी कहै हैं कि रामके वियोगी ने जीवहैं ते जियै नहीं हैं बिषयमें लगे हैं काल उनको खायलेइहै । औ जे योग कारकै बैराग्य कारकै भक्तिकरिकै निये विषय छाड़िकै संसारको छोड़े हैं ते बाउर लैजाय हैं । कहे बहुत दिन जीबोकिये ब्रह्महूमें लीन भय तौ पुनि संसारमें तो आवही करेंगे। काहेते कि, अपने स्वामीको तो चीन्हबही न किये अर्थात् बैकल द्वैगये हैं जो बैकलाय है सो औरको और करैहै यथार्थ बात नहीं करै है ॥ ९६ । । राम वियोगी बिकल तन, जानि दुखबो इन कोइ ॥ छूवतही मारे जायेंगे, ताला बेली होइ ॥ ९७॥ श्रीकबीरजी गुरुवालोगनते है हैं जे साहबके बियोगीजीव द्वैरहेहैं तिनको तुम काहे दुखावतेहो अर्थात् नाना मतनमें नाना उपासनामें काहे भटकावतेह जरैमें लॉन मांजतेहीं इनके भीतर आपहीते तालाबेली परिरही है नाना मत