पृष्ठ:बीजक.djvu/६०७

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साखी । कबीर जीको पद ॥ सन्तै रामनाम जो पावें । तौ बों बहुरि न भवजल आवें ॥ जंगमतो सिद्धिहिको धावें। निशिबासर शिव ध्यानलगावें ॥ शिवशिवकरतगयेशिवदारा । रामरहेउनहूँतेन्यारा ॥ पण्डित चारिउ वेदबखानैं । पर्दै गुनै कछु भेदनअनैं । संध्या तर्पण नेम अचार । रामरहे उनहूते न्यारा ॥ सिद्धएकजो दूधअधारा । कामक्रोधनहिंतनैं बिकारा ।। खोजतफिराजको दारा । रामरहे उनहूते न्यारा ॥ बैरागी बहुवेष बनावें । करमधरमकी युगुतिलगावें ॥ घण्टबजाय कैरै झनकारा । रामरहे उनहूते न्यारा ॥ जंगमजीवकबनहिंमारैं । पर्दैगुनैं नहिं नामउचारें ॥ कायहिको थोपै करतारा । रामरहे उनहूँते न्यारा ॥ योगी एकयोग चितधरहीं । उलटे पवन साधना करहीं ॥ योगयुगुतिलै मनमें धारा । रामरहे उनहूते न्यारा ॥ तपसी एकजो तनकोदहई । बस्तीत्यागिनँगळमें रहई ॥ कन्दमूलफलकरआहारा । रामरहे उनहूते न्यारा ॥ मौनी एकनों मौनरहावें । और गाउँमें धुनीलगावें ॥ दूध पूत दैचले लवारा । रामरहे उनहूते न्यारा ॥ यती एक बहुयुगुतिबनावें । पेटकारणे जटाबढ़ावें ॥ निशिबासर जो करहङ्कारा। रामरहे उनहूते न्यारा ॥ फुकरा लैजिय जबे कराही । मुखते सबतर खुदाकहांहीं॥ लैकुतकाकहैं दम्ममदारा । रामरहै उनहूते न्यारा ॥ कहै कबीरसुंनोटकसारा । सारशब्द हम प्रकटपुकारा ।। जोनहिं मानहिं कहाभारा । रामरहे उनहूते न्यारा ॥ १०० ॥ काल खड़ा शिर ऊपरे, जाग विराने मीत ॥ जाको घर है गैलमें, क्या सोवै निश्चीत ॥१०१।।