पृष्ठ:बीजक.djvu/६१०

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(५७२) बीजक कबीरदास । बांह मरोरे जातहौ, मोहिं सोवत लियो जगाय ॥ कहै कबीर पुकारिकै, यहि पैंडे ढुकै जाय॥ ११५॥ मुसलमाननमें जे साहबके भक्त होय ते जब भजन न करै हैं तब उनको चार दुस्तते दस्त मिळावै है सो दुस्तमिलायकै साहब को बताइ देईहैं पास पहुँचाय देय तिनसों जीव कहै हैं कि हमारी बांहमरोरे चले जाउही हम संसारमें सोंव त रहे सो जगाय लियो तब उनके पीर जे हैं कबीर ते कहै हैं कि यहि पेंड़े हुँकैजाउ या कहिकै साहबके जायबेको राहवताय देइहैं तब उनके परमगुरु जे हैं। महम्मद आदिदैकै पैगम्बर तिनके इहां पहुँचाय देय हैं तब उनके चेला वह राहचलि महम्मद के पास पहुँचे हैं तब महम्मद साहबके पास पहुँचावै हैं औ हिंदुनमें जे श्रीरघुनाथजी को स्मरणकरै हैं तें गुरुद्वारा वैकै सुमिरनकरै हैं ते गुरु परमगुरुको मिलावै हैं परमगुरु आचार्यको मिली हैं ते साहब को मिलाय इहैं जैसे रामानुज मतवारे अपने गुरुको प्राप्तभये औ गुरु शठकोपाचार्यको प्राप्तभये औ वे विष्वक्सेनको प्राप्तकियो जीवको औ वे संकर्षणको प्राप्तकियो औ जानकीजी को प्राप्त किया जानकीजी श्री रामचन्द्रको प्राप्त कियो कबीरजी रामानन्दके सम्प्रदायके हैं तेहिते यह सम्प्रदाय संक्षेपते लिखि दियो है ऐसे सब आचार्य लोग आपने अपने चेलनको साहबमें लगाय देइ हैं ॥ ११५ ॥ औरे और प्रतिमें इसके पश्चात एक और साखी है पर इसमें नहीं दिया । वेरा बाँधिन सर्पको, भवसागरके माहि ॥ छोडै तौ बुड़त अहै, गहै तौ डसिहैवाहि ॥ ११६॥ पंचमुखी सर्प अहंकार ताके पांचमुखन में पांचमकारकी बाण निकरी है। प्रथममुख विश्वहै ताते कर्मकांड निकरा औ दूसरामुख तनस तातें योंगकांड़ निकरा औ तीसरामुख प्राज्ञ ताते उपासनाकांड निकरा ॐ चौथामुख प्रत्यगात्मा | १ दूसरी प्रतियोमें यहाँ पर यह साखी है । पूरन साहबकी टीकाकी ११७वीं साखी है। साखि पुलंदर ढहि परे, विवि अक्षर युनचार । रसना रम्भन होत है, कै न सकै निरुआर’’