पृष्ठ:बीजक.djvu/६१७

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साखी । (९७९) मोहरूपी निशा बिहाये जायें। औ ने नहीं जागै हैं तिनको काल डसिखायहै सोनिनको रामोपासना सिद्धदै गईहै ऐसे जे भक्तहैं तिनके शरीरं नहीं छूटै हैं सो । हनुमान् कबीरजी प्रकटै हैं ॥ १३० ॥ जो ई घर है सर्पका, सो घर साधुन होइ । सकल संपदा लै भई, विष भर लागी सोइ॥ १३१॥ जो घर सर्पकोहै सोधर साधुको न होइ अर्थात् सर्पको घरबेमौरहै तामें बहुतछिद्र होइहैं सो या शरीरौ बहुत छिद्की बॉबी है तामें काल बसैहै सो बेमोरमें जो जीव जायेहै तिनको सर्प खाय लेइहै औ जे या शरीर में कौन जीव बसैहै तिनको काल खाइलेइहै ॥ १३१ ॥ * मन भरके वोये कवौं, चुंघुची भर ना होइ ॥ कहा हमार मानें नहीं, अन्तहुचले विगोइ॥ १३२॥ शरीर में जो बँधुची भर बासना उठै है। मन भर की लैजाताहै कहे मनसंकल्पविकल्पकारकै और बट्टाइ देईहै मनमें वही भर रहती है औ मनभर उपदेशकरै त बँधुची भर ज्ञाननहीं रहै यह मननैच में जायहै ऊँचेको नहींजाय सो श्रीकबीरजी कहै हैं कि, हम केतौ उपदेश करैं परंतु कोई नहीं मोनैहैं ताते अन्तमें बिगोइकै कह बिगरिकै मरिकै नरकमें जायहैं ॥ १३२ ॥ आपातजो औ हरि भजो, नख शिख तजो बिकार॥ सब जिउते निरबैर रहु, साधु मता है सार॥१३३॥ श्रीकबीरजी कहै हैं कि जबभर तें यहि शरीरको आपनो मानैगो तब भर तेरो जनन मरण न छूटैगो ताते “अहंशरीरःमैं शरीर हौं यह जोहै आपा ताके छोड़िदे हैं तो साहबको पार्षदस्वरूपहै तामें टिकि तिनको भजनकरु औ नख शिखमें तेरे कामक्रोधादिक बिकारई देखे परैहैं तिनको छोड़दे औ चिदचित् ॐ इसके आगे की यह साखी छाड्दी है। “घेवुची भर जो मैं इयः, उपजपसेरेः आठ । डे पर काल घर, सांझ सकारे वाढ